लेखक की कलम से

योगदान …

 

हम मूक भाषा के युग में है…

वैश्विक आपदा के इस समय में

मनुष्य, मनुष्य से डर रहा है

अपने – अपने घरों में क़ैद

खिड़कियों से झांकते

 मूक हो केवल देखते हुए…

मज़दूर उफनते बाढ़ में

तैरते हुए पत्ते की तरह

सड़क पर चल रहे हैं

हम मूक हो केवल देखते हैं…

प्राकृतिक आपदा ने

वर्षों से जमें पेड़ों को

उखाड़ दिया है जड़ों से

और वह गिर पड़ा है

गरीब की बरसों पाई – पाई जोड़कर जमाई हुई गृहस्थी पर

हम मूक हैं, केवल देखते हुए…

क्योंकि…

जब हम कुछ न कर पाने की स्थिति में हो

तब…

मूक रहना भी योगदान ही है!

©डॉ. विभा सिंह, दिल्ली

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