एकांतवास …
अकेले में बैठे बैठे सोच रहीं हूं ..
एकांतवास का पच्चीसवां दिन
घर, घर के लोग और स्वयं
सभी को जाना पहचाना
पर …उसे भी तो है जानना
जिससे हैं हम सब का होना
यह सोचते हुए कदम चल पड़े
और रुक गए ..
बड़े घर की छोटी सी बगिया में ..
मैंने सोचा इनसे भी पूछ लूं
उन्नीस दिनों का हिसाब
मैं तो घर में रहकर गई हूं ऊब
‘प्रकृति’ क्या तू भी है बेतरतीब ?
पर..ये क्या ?? वे सब हंसने लगीं
अशोक और पारिजात झूमने लगे
मदार और चमेली गले मिलने लगे
गुलाब और मोंगरा खिलने लगे
सेमल और पलाश खुशी के मारे गिरने लगे ..
मैंने सबको इतना खुश कभी नहीं देखा
सब इठला रहे थे ..बल खा रहे थे
मैंने पूछा बहुत खुश दिख रही हो
इठलाती बलखाती मचलती
सच में सब खुश हो ?
या मेरी तरह खुद को ठग रही हो ?
शांत स्वर में ‘प्रकृति’ बोली..
न मैं इठला रही हूं और न ही
खुद को ठग रही हूं ..
पर हां ..खुश जरूर हूं ..
कल कृत्रिम चीजों से तुम सजाती थी
आज प्रकृति हमारा श्रृंगार कर रही है
तुम सबके कृत्यों से हलाहल पीते थे
आज गगन स्वयं अमृत बरसा रही है
हवा बसंती और बसंती बयार कहकर
तुम जैसे कवि कविताओं में सजाते थे
और मैं ढूंढती थी उसे यथार्थ में
पर आज देखो मैं सच में बसंती हूं
मैं अपना चक्र दु:खी होकर भी चलाती रही
और तुम करते रहे सिर्फ़ मेरा दोहन
मैं हमेशा श्रृंगारित रही खिलती रही
इस आस में कि कभी तो संभलोगे
और तुम भागते रहे दौडते रहे
प्रकृति से बेखबर ..बदहवास ..
ठहरे भी कब ??
जब खुद को बचाने की मजबूरी है ??
वरना तुम कब चेतते ??
सदियों लगे तुम्हें ठहरने में
अब तुम ठहरे हो तो मैं गतिमान हूं
मैं अब संवार रहीं हूं खुद को
तुम्हारे बेहतर कल के लिए
बनकर बसंती हवा आ तू और मैं
मिलकर श्रृंगार कर लें ..
मैं सुनती रही उसकी बातें
आज लगा मेरी मां सी है वो
डांटती ..समझाती और गले लगाती ..
निश्छल …मधुर और दुलारती ..
मैंने भी सिर झुका दिया गलतियों पर …
और अपने अश्रुबूंद से सींच दिया ..
वो फिर हरी हो गई और हरसाने लगी ..
©डॉ. सुनीता मिश्रा, बिलासपुर, छत्तीसगढ़