लेखक की कलम से

पूस की शीतलहरी…

हवा हूं हवा मैं
केदारनाथ अग्रवाल जी कहते
हवा के संग चलते रहे
बच्चा बच्चा झूमता है
इस कविता के संग
विचरने लगता खेतों में
पेड़ और पौधों से लिपटने लगता है
पूस की ठिठुरन भरी रात आ गई
नहीं है आसपास कहीं भी
गर्म आलू आग का पका हुआ
आदमी और फसल
सबका हो रहा शंकरण
मौसम भी त्योरियां चढ़ाए हुए है
हवा अबतक मनाने में लगी है
सर्द हवाओं संग
कुछ गुनगुना लें
जाड़े का मज़ा लें।

©लता प्रासर, पटना, बिहार

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