लेखक की कलम से

मुम्बार …

“मुम्बार…मुम्बार …मुम्बार” … कुछ बच्चों को चिल्लाते सुन मेरे हाथ में पकड़े चावल से भरी डलिए को वही फैंक मैं भागती हुई नीचे आई, मेरी गाले ( नीचे की वस्त्र जिसे महिलाएं लपेटकर पहनती है) भी खुल गई जिसे हाथों से पकड़कर मैंने भागती हुई लपेट लिए। मैं आवाज की दिशा में भागी जा रही थी। हमारे घर से तीन घर के बाद एक छौटा सा खाली मैदान है जहां गांव के सब बच्चें खेलने जाते है। मेरा आठ वर्षीय बेटा भी वही खेलने गए थे। मैं जब वहां पहुंची तो कुछ बच्चे मेरे बेटे को घेरकर खड़े थे और “मुम्बार..मुम्बार…” चिल्ला रहे थे। जिनमें तीन -चार सोलह-सत्रह साल के लड़के थे जो इस बात का मज़ा ले लेकर हँस रहे थे। काटों तो खून नहीं.. मेरा दिल् जोर-जोर से धड़कने लगी, मेरा बेटा, मेरे लाल, मेरा जिगर का टुकड़ा अपनी दोनों हाथों को कानों में रखकर किसी अपराधी के समान सबके बीच सहमकर बैठे हुए थे। सबको परे धकेलकर मैंने उसे लपककर अपनी आगोश में ले लिया। मुझे अपने पास पाकर वो फूटफूटकर रोने लगे। उसे चुप कराकर मैं बाकी बच्चों को नफरत भरी निगाहों से देखती हुई वहां से निकल गई। घर पहुंचकर मैंने कालुम को पानी पिलाया, गाले से उसका चेहरा पोछा और उसे चुप कराने का प्रयास किया। वह चुप भी हो जाते अगर मैं जोर-जोर से रोने न लग जाती। मेरा रोना देख कालुम चुप हो गए और मेरी आंसु पोछने लगे।

बारह साल पहले मैं अपने पति कोम्बा से ब्याहकर इस गांव में आयी थी। बचपन से अनाथ थी, चाचा-चाची के साथ पली। वे बुरे इंसान नहीं थे पर अपने पांच बच्चों के साथ मेरा पालन पोषण का ज़िम्मेदारी उनके कंधे आ गए थे और साथ ही बूढी दादी की भी, सो दोनों विशेषकर चाची अत्यंत कटु भाषिनी हो गई। मैंने कभी भी चाची को हंसते नहीं देखा। पर मां के बाद चाची और दादी ही तो थे जिनमें मैं अपनी मां की ममता खोजती थी। अपनी दो चचेरी बहन और तीन चचेरे भाई सब की देखबाल करने में वक़्त कैसे बीत जाती थी पता ही नहीं चला। सुबह चाचा और चाची खेत के लिए पौ फटते ही निकल जाते थे। वे खेत में ही खाना बनाकर खाते थे। दोपहर की गर्मी में वे खेत की विश्राम गृह में खाते पीते और थोड़ा आराम करते थे। इसलिए सुबह सवेरे जाकर काम करते थे। उनके बाद मैं उठकर भाई बहनों के लिए खाना बनाती और उन्हें खिलाती। जब सब खा-पीकर स्कूल चले जाते तो दादी का बिस्तर को बाहर की बैठक में लगा देती, उन्हें खिलाने-पिलाने के पश्चात शाम को मील में कूटकर लाए चावल को साफ करती। सबके कपड़े धोती, दादी को नहलाती। मुर्गी और सूंअरों को दाना देती। दादी की सर से पके बाल तलाशती, वैसे तलाश तो काले बालों का होना था क्योंकि निन्यानवें प्रतिशत बाल श्वेत हो चुकी थी। पर दादी को सफेद बाल उखड़वाना प्रिय था। दिन को धान को धूप में सुखाने जब बैठती थी तब गांव के अन्य बुजुर्ग लोग अपने पोते-पोतियों को लेकर दादी के पास आ जाती थी, उन सब के लिए चाय बनाना, चावल को भिगोकर महीन पिसकर उस इती में चीनी मिलाकर उन्हें खिलाना, मुझे बहुत प्रिय था। गांव के दादा-दादियां जब मेरे लिए फलने-फुलने की आशीर्वाद देते तो मुझे बहुत अच्छा लगता था। यहीं मेरी दुनियां थी। शाम को चाचा-चाची घर लौटने पर उनके लिए चाय फिर पोका (स्थानीय पेय, मदीरा) तैयार करना। चाचाजी पोका के गिलास को पकड़कर तथा आमिन (चावल के टुकड़ों में सूखे मांस और नमक डालकर बनाया गया खिचड़ी) खाते –खाते मेरी खूब तारीफ करती। चाची आदत के अनुसार मुंह बनाकर बैठती। मैं उनके पास बैठकर उनके द्वारा खेत से लाए गए सब्जियों को अलग-अलग करके पत्तों में बांधकर रखती।

वक़्त कैसे गुजरे और मैं कब जवान हो गई पता ही नहीं चला। मैं जब नौ साल की थी तब मां और पिताजी की खेत में जहरीली कुकुरमुत्ता खाने के कारण मौत हो गई। वे जब खेत से शाम को नहीं लौटा तो गांववाले उसे ढूंढने निकले तो देखा दोनों मरे पड़े थे, पास रखे आधा खाए कुकुरमुत्तों के सब्जी को देखकर लोगों ने अनुमान लगाया कि इनकी मौत इसी से हुआ। कहते हैं दोनों के मुंह से झाग निकल रहे थे। बचपन से ही मैं काफी समझदार थी, शायद ऊपरवाले को मुझे ऐसी ज़िन्दगी देनी थी इसलिए।

मुझे मां की एक एक बात याद है। मां कहती थी कि लड़कियों को पीछे भी आंखें होना ज़रूरी है। अर्थात पांच इंद्रियों का प्रयोग सब करते है, संस्कारी लोग छठी इंद्रियों का प्रयोग करते हैं। लड़कियों को बैठते समय अपने पैरों को फैलाकर नहीं बैठना है। उन्हें चूल्हे की आग की लकड़ियों का भी ध्यान देना है। अगर खत्म हो जाता है तो नए डालना है अगर जलकर कम होता है तो अन्दर करते जाना है। ये बात सिर्फ अपने घर पर ही नहीं दूसरों के घर पर भी लागू होती है। घर में कोई आए तो तुरंत उठकर मूढ़ा दे देना। जहां भी जाओ किसी को काम करते देख या कोई भी काम हो उसमें लग जाना। ये सब बातें जनजातियों के संस्कारों में आते है। मैं इन बातों का खास ध्यान देती थी इसलिए गांव व आसपास के गांव के लोग मेरे लिए रिश्ते लेकर आने लगे। चाचीजी ने साफ मना किया कि अगर यागाम शादी कर ली तो घर को कौन देखे ? भाई बहनों को कौन सम्भाले? बूढ़ी दादी की देखभाल कौन करे? लेकिन दादी ने साफ कह दिया कि यहां कि ज़िन्दगी से अच्छी ज़िन्दगी मिले इसके लिए इसकी शादी करवा दी जाए, कम से कम इज़्ज़त की ज़िन्दगी जी सके। मैं चुपचाप सबकी बातों को सुन रही थी। मुझे लगता था जो भी फैसाला बड़े लोग लेंगे मेरे हक में ही होंगे।

मेरी शादी पूरे रीति-रिवाज़ के साथ की गई। सबसे पहले वर पक्ष की ओर से बात पक्की करने के लिए ‘योक्सी-तालो’ (एक विशेष प्रकार की तलवार व विशेष धातु के बने बड़े आकार का कटोरा) ले आए। इस रस्म के बाद मेरी शादी का दिन तय हुआ, जिस दिन मैं विदा हो रही थी गांव के चाची व दादियों ने मेरे बालों में मूल्यवान मालाओं के मनकों को आशिर्वाद के साथ धागे लगाकर बांधी। सबने एक-एक करके कई दिनों तक मुझे खाने पर भी बुलाया और ज़िन्दगी की अनुभवों को सांझा किया। दादी भी अपनी शादी व उसके बाद का अनुभव मुझे बांटने लगी। इन दिनों चाची भी कुछ नर्म हो गई। मैं गदगद हो रही थी, इतने सारे आशिर्वाद, मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली मान रही थी।

शादी के दिन मुझे सजाया गया, मेरे बालों में ‘दुम्ज़ेन’अर्थात मालाओं की खूबसूरत मनकों को गूंथा गया।   ‘जेसअ कोरे’अर्थात स्वेत रंग की गाले और मोटे ऊनी अचकन, सर में ‘ताल दुम्बु’अर्थात विशेष प्रकार की टोपी नुमा वस्तु आदि पहनाया गया। सर पर लम्बी रस्सी से लगे और पीछे की ओर लटके ‘हुर्गेन’अर्थात मूल्यवान धातु से निर्मित मध्यम आकार की घंटियों की पंक्ति, जो मेरे हर कदम पर खूबसूरत ध्वनियां उत्पन्न कर रही थी, हाथों में ‘एक्काम’के कोंपले अर्थात जिसे गालों में कोपु कहते हैं पकड़े मैं विदा हो रही थी। मेरे पीछे मेरा भाई ‘होताम’ अर्थात बड़े और आयत आकार की कोई वस्तु पकड़े मुझे छाया दे रहे थे। कुछ मील चलने के बाद हम एक जगह विश्राम करने लगे, मुझे उसी होताम को पलटकर उसमें बिठाया गया और माता-पिता के घर की अंतिम भोजन ‘ञाञुम आसिन’को ग्रहण करवाया। ये रस्म इस बात को दर्शाता है कि ये वह भोजन है जिसे मैं बचपन से खाती आ रही थी किंतु आज के बाद में उनकी बेटी नहीं किसी की पत्नी और बहू हो जाऊंगी और जब आऊंगी तो मेहमान बनकर। दो-तीन कौर खाने के पश्चात थोड़ा-थोड़ा मुट्ठी में लेकर बिना मुड़े पीछे की ओर फेंक दीए गये। ये अत्यंत भावुक क्षण था। फिर आगे बढ़ी और कुछ दूरी पर ही वर पक्ष के लोग हमारे स्वागत में खड़े मिले। पहले कुछ पुरुषों ने ताल पीटकर अत्यंत हंसी-मजाक के साथ हमारे स्वागत की, फिर आगे गांव के बच्चे, बूढ़े, औरतें सभी दुल्हन का दर्शन के लिए खड़े मिले। हमारे साथ आए औरतें मुझे ढंकने का प्रयास करने लगी। जिसे दिखे वो ‘मैंने देख ली, मैंने देख ली’कहकर चिल्लाने लगे। कोपु का आदान-प्रदान वर-वधु में हुआ। फिर ‘होगी’में बंधे मिथुन को बारी-बारी कोपु से हल्का-हल्का पीटा गया, फिर वर द्वारा ‘इसाक-उपुक’ अर्थात ‘धनुष-तीर’ मिथुन पर चलाया गया। अंत में मेरे भाईयों ने अपने साथ लाए कुल्हाड़ियों से एक-एक करके मिथुन को मार गिराया। लोगों का भीड़, उसपर ‘काबेन ञिबो’अर्थात शादी के गीत गानेवाली लोकगायिका के ‘काबेन’अर्थात गीत, माहौल शोरगुल वाला था। पांच मिथुन की बलि के साथ मेरा विवाह सम्पन्न हो गया।

शादी के चार साल बाद मैं गर्भवती थी। कोम्बा एक समझदार और प्यार करने वाला पति था। वह पहले से ज़्यादा मेरा ख्याल रखने लगा। घर का सब काम वह करने लगे। खेतों में तो जाना ही बंद करवा दिए। लोग बातें बनाने लगे, बहू के पेट में हीरे फल रहे हैं इसलिए कोम्बा उसका इतना ख्याल रखते हैं। खासकर मेरी देवरानी, जिनकी शादी के दूसरे साल ही जुड़वा बेटा हुआ था। हम इतने खुश थे कि लोगों की बातों को सुनकर भी अनसुना कर देती।

एक दिन मैं आनेवाले मेहमान को याद करती हुई रेडियो में बज रहे ‘यशोदा का नन्द लाला’सुनकर अपनी हाथों से धीरे-धीरे पेट को सहला रही थी, तभी लोगों के शोरगुल से मेरी तंद्रा भंग हुई। कुछ लोग हो-हल्ला करते हुए आ रहे थे। कुछ लोग घर पहुंचे, मैं कुछ समझ पाती, कुछ औरतें मुझे पकड़कर रो रही थी, तभी खून से लटपट मेरे पति को लोग उठाकर ला रहे थे।

पानी की छींटे पड़ने से मेरी आंखें खुली, घर में गांववाले सब इकट्ठे हो गए थे।

सुबह सुबह हंसकर जंगल के लिए निकले थे शिकार के लिए और उसे ही साथी शिकारी की गोली लग गई, लम्बी चीख पूरे वातावरण में गोली की आवाज़ के साथ विलीन हो गए। पूरे गांववाले शोक जता रहे थे, पूजा हो रहा था, लोग मेरे लिए दुआ कर रहे थे। मेरा पति इन सब से अंजान चिर निद्रा में सो रहे थे।

अंतिम संस्कार के बाद रात को गांव के कुछ लोग बैठे हुए थे जो अपने करीबी थे, कुछ महिलाएं थी। मुझे सांत्वना दिया जा रहा था।

“बहू चिंता न करो, जिसको जाना था वह चला गया, तुम अकेली नहीं। पेट में पल रहे नन्हां जीव तुम्हारी हर ग़म भुला देंगे। अगर वह बेटा न होकर बेटी हो भी जाए तो तू चिंता न करना, कोम्दुक और कोम्बा कोई गैर नहीं अपने है, कोम्दुक के दोनों बेटों में से एक बेटा कोम्बा का कहलाएगा और उसके हिस्से की ज़मीन जायदाद का हिस्सा सम्भालेगा।“मैंने धीरे से उस ओर देखा जो मेरे पति के मौत के अगले दिन ही उनकी वारिस के बारे में बात कर रहे थे। इस दर्द के साथ कि मैं अब विधवा हूं मेरा कोई नहीं है, ज़िन्दगी की गाड़ी आगे बढ़ी।

और वह दिन आ गया, जब मैंने एक प्यारा सा बेटा को जन्म दिया। नाम रखा गया बाकेन। कोम्बा का बेटा बाकेन। मैं तो अपने बेटे को बुरी नज़रों से बचाने के लिए ‘इकी’ अर्थात कुत्ता का बेटा कहने लगी और मेरा बाकेन को ‘कीकेन’कहने लगी। मैं अपने जिगर के टुकड़े को कई गंदे नामों से बुलाने लगी जैसे- कालुम (कुरूप), याओ अर्थात मूर्ख, नाम्सु या नाम्किर अर्थात बदबुदार। जिन नज़रों को देखना था वो तो हमेशा के लिए हमें छोड़कर चला गया।

लाख कालुम कहुं मेरा बेटा इतना सुन्दर था कि वह एक चर्चा का विषय बन गया। वह इतना सुन्दर था कि अकसर लोग उसे बेटी कहने लगे। मुझे स्वयं की नज़र से भी डर लगने लगा। मेरे भीतर एक डर बैठ गई, क्योंकि मैं भी कभी कभी धोखा खा जाती थी, उसकी आवाज, आंखें, हाथ-पैर, होंठ। उम्र के साथ यह लक्षण और दिखने लगा और अब उसके साथ खेलने वाले बच्चे भी उसे चिढ़ाने लगे। बच्चे उसे ‘ये लड़कियों का खेल नहीं’कहकर क्रिकेट नहीं खेलने देते थे। रोज़ वह डरे-सहमे रहता, अब तो स्कूल में भी ये होने लगा और अब वो स्कूल जाने के लिए मना करने लग गए। देवरानी भी ताने देने लगी है। मैं मायके भी नहीं जा सकती, वहां अब दादी भी नहीं है। आज फिर वे उसे इस तरह डरा रहे हैं। मैंने तय किया लोग जो भी कहे मुझे मेरे बेटे का साथ देना है। मैं उसपर नहीं थोपूंगी कि उसको क्या करना है। मैं उसके साथ खड़ी रहुंगी। मैंने उसे चुम्कारते हुए कहा- “ आनअ ग ताइयअ, दुनिया जो कहे, तुम ध्यान मत देना। मैं हूं तुम्हारी मां। मैं हमेशा साथ हूं। तुम्हें पता है हम सबको ऊपरवाले ने बहुत ही प्यार से बनाया है, भगवान ने अपने पसन्द के अनुसार हमें अलग-अलग बनाया है, फिर उनके बनाए चीज़ कैसे गलत हो सकता है? इसलिए लोग जो भी कहे तुम अपने मन की करना, हां, ये ज़रुर याद रखना कि तुम्हारी वजह से ईश्वर द्वारा बनाए गए अन्य लोगों को कोई तकलीफ न हो। सबसे प्रेम करना, हर प्राणी से स्नेह रखना, इसलिए लोग जो कहे उसे ध्यान मत देना।“

सर हिलाकर उन्होंने मुझसे गले लगा लिया। मैंने आसमां की ओर देखा। शायद कोम्बा भी वहां से मुस्कुराकर हमें देख रहे हैं।

 

© मोर्जुम लोयी, सहायक प्राध्यापक, लेखी, अरुणाचल प्रदेश

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