लेखक की कलम से
लो मचलने लगी तरि चढ़ …
सोच मत तरि जीर्ण फूटी
सोच मत पतवार टूटी
बैठ मत यों सिर झुकाकर
लक्ष्य पाने को निकल बढ़
सच यही तट दूर है अति
लहरियों की क्रूर है गति
डर न तू साहस ह्रदय रख
घर इन्हीं के बीच से कढ़
फेन बन जो दिख रहा है
सिंधु जिसको लिख रहा है
भाग्य के ये स्वर्ण अक्षर-
जगमगाते, तू इन्हें पढ़
साथ देने सच न कोई
हाथ देने है न कोई
स्वयं अपने हाथ से ही
नियति अपनी आप तू गढ़
पार तू जाकर रहेगा
लक्ष्य तू पाकर रहेगा.
दृश्य सारे दूर हैं पर
छवि दृगों मे त्वरित तू मढ़..
©आशा जोशी, लातूर, महाराष्ट्र्