लेखक की कलम से

दर्पण……

दर्पण नहीं मात्र शीशा
परिपक्व, सौम्य, साधन
कभी सगुण तो कभी दुर्गुण
नज़र आए शीशे मे
यह नही मात्र शीशा
कभी व्यक्तित्व आता उभर
पल में मुस्काना
पल में लोगों का रोना
कभी पसीना बहाते लोग देख
स्वाभिमान व गर्व से
चौडा होता सीना
मानो शीशे में सिमटी दुनिया
समाज की हर बात
देखा इस शीशे में
जब भी किया आत्मावलोकन
जब भी देखा मन से
नहीं देखा एक चेहरा
दीखे अनेक चेहरे
अर्पित किए प्राण
देश की खातिर
नहीं टूटा शीशा
नही खत्म हुआ
आज भी पाते
सुख व दुख
अत्याचार औ बलात्कार
चीख पड़ी कानों पर
भरा समाज अच्छे-बुरें विचारों से
थे तब भी और आज भी
फर्क सिर्फ इतना
तब थी दुनिया परायों की
लूटा हमें परायों ने
आज लूटते अपने
जब भी देखा दर्पण में
नज़र आए कहराते लोग
कानों पर हाथ धर
आंख बंद कर
महसूस करता मन
नहीं देखना-सुनना
फिर भी हिम्मत कर
एक सोच
कभी तो आएगा बदलाव
कभी तो बदलेगा समाज
एक उम्मीद बस मात्र
एक उम्मीद ……

©डॉ. अनिता एस. कर्पूर बेंगलूरू

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