लेखक की कलम से

सुनो… पतंग उड़ाने आओगी न

 

तुमने कहा था हम आयेंगे लोहड़ी को

पतंग उड़ायेंगे तुम्हारे साथ

तुम कहती थी मुझे उड़ाने नही आता

मै कहता मै सिखा दुंगा तुम्हे अपने साथ

तुम डोर मेरी पकड़ लेना

आसमाँ मे उड़ा दूंगा मैं

पर मै काट नही पाता

तुम काट देना दुसरो की पतंग

 

ना तुम आये ना आयी कुछ यादे

लो मैने भी नही मनाया

पतंग बाजी की त्योहारे

 

याद तुम्हारी आकर

दिल को छू जाती थी

काश तुम पास रहती मेरे

ये बार बार कहती थी

 

घर पर बनी खिचड़ी

तुमको हम खिलाते

चूरा मटर का दाना बना

तुम्हे और खिलाते

तुम खुश होकर हमे

कुछ अपने तीखी बात सुनाती

कहती तुम गजब हो

मुझे पतंग उड़ाना सिखाते

 

फिर आँगन मे अपने तुमसे

दिपक मै जलवाता

माँग दुआ प्रभु सें

तुमसे बार बार कहलवाता

©रामजतन मौर्यवंशी, बनारस

Back to top button