लेखक की कलम से

महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना होगा…

भारतीय समाज में वैदिक काल में नारी का स्थान बहुत सम्मानजनक था और अखंड भारत में विदुषी नारियों के लिए जाना जाता था। कालांतर में नारी की स्थिति में ह्रास हुआ है। मध्यकाल आते-आते यह ह्रास अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। जिस समाज में नारी का स्थान सम्मानजनक होता है, वह समाज उतना ही प्रगतिशील और विकासवादी होता है। भारत में आजादी के बाद ऐसा सोच गया था कि भारतीय नारी एक नई हवा में सांस लेगी किंतु हुआ उल्टा। आजादी के बाद कानूनी स्तर पर नारी की समानता, सशक्त बनाने के प्रयास तो खूब हुए किंतु सामाजिक स्तर पर जो बदलाव आना चाहिए था वह परिलक्षित नहीं हुआ। इसका प्रमुख कारण रहा पुरुष प्रधान मानसिकता जिसे अपेक्षित रूप से बदला नहीं जा सका और नारी के प्रति सम्मान का रवैया दोयम दर्जे का ही रहा रहा।

दरअसल हम समानता की तो बातें करते हैं लेकिन कहीं ना कहीं पर मानसिकता हमारी दबी रह जाती है। प्रकृति महिला एवं पुरुष के बीच लिंग भेद भेद किया है ,लेकिन जेंडर भेदभाव समाज की देन है। जिसमें नारी को पुरुष की तुलना में दोयम समझा जाता है। महिला पैदा नहीं होती अपितु समाज द्वारा बनाई जाती है। जब हम एक संपूर्ण प्रवेश में स्त्रियों की स्थिति का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि पहनावा से लेकर के काम करने के क्षेत्र और कैरियर तक जेंडर के आधार पर अंतर निर्धारित कर दिया गया है।

लिंगभेद प्रकृति प्रदत्त है लेकिन जेंडर भेदभाव सामाजिक-सांस्कृतिक देन है। चाहे जितना प्रयास भी किए जाएं संविधान और कानूनों में चाहे जितने प्रावधान किए जाएं लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा मूलक समाज की स्थापना और महिलाओं तथा बालिकाओं को पुरुषों के समकक्ष लाने के लिए राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कितनी लच्छेदार भाषण क्यों न दिया जाए संपूर्ण विश्व की महिलाएं समानता की शिकार हैं। जहां तक भारत का प्रश्न है तो हालिया रिपोर्ट में भारत में पुरुष और महिला के बीच अंतराल में इजाफा देखने को मिला है वैश्विक लैंगिक अंतराल 2020 की रिपोर्ट में चार स्थान फिसल कर भारत का 112वा स्थान पर पहुंच गया है। यह स्थान भारत विश्व में 153 देशों के सूची में मिला है। भारत के आर्थिक भागीदारी और स्वास्थ्य पर भारत की स्थिति चिंताजनक है। इस रिपोर्ट में आइसलैंड को पहला, नॉर्वे को दूसरा स्थान दिया गया है फिनलैंड को तीसरा स्थान दिया गया।

विश्व कि काम करने लायक जनसंख्या की लगभग आधी महिलाएं है।  लेकिन 37 फीसद सकल घरेलू उत्पाद महिलाओं द्वारा उत्पादित है वही अगर भारत की बात करे तो 17 फीसद भारत में सकल घरेलू उत्पाद महिलाओं द्वारा उत्पादित है। वैश्विक स्तर पर बिना भुगतान के लिए जाने वाले कार्य का 75 फीसद महिलाओं द्वारा किया जाता है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो में श्रम बल में महिला सहभागिता दर को पुरुषों के बराबर लाने से सकल घरेलू उत्पाद में सन 2025 तक 2025 तक 0.7 ट्रिलियन से 2.9 ट्रिलियन डॉलर तक होने की संभावना है। महिलाएं अपनी 90 प्रतिशत आय को अपने परिवारों पर खर्च करती हैं और आर्थिक रूप से उन्हें सशक्त करने से मांग बढ़ती है, बच्चे स्वस्थ और सुशिक्षित होते हैं और मानव विकास का स्तर ऊंचा होता है। निजी क्षेत्र के हर तीन में से एक शीर्ष अधिकारी का कहना है कि उभरते बाजारों में महिलाओं को सशक्त करने के प्रयासों के फलस्वरूप लाभ बढ़ा है। भारत सरकार की मुद्रा योजना सूक्ष्म और लघु उद्यमों को सहयोग प्रदान करती है और जन धन योजना के तहत किए जाने वाले प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरणों से महिलाएं सशक्त होती हैं। मुद्रा के तहत कुल उधारकर्ताओं में 78 प्रतिशत महिला उद्यमी हैं।

निजी क्षेत्र और कारोबारी समुदाय दक्षता और रोजगार के बीच के अंतर को कम करने और महिलाओं को उत्कृष्ट श्रम उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। महिलाओं में मार्केटिंग संबंधी कौशल और बेहतर तरीके से फैसले लेने की क्षमता विकसित हो, इसके लिए व्यावसायिक एवं तकनीकी प्रशिक्षण, जीवन कौशल और वित्तीय साक्षरता कार्यक्रम को तब तक अर्थपूर्ण तरीके से विकसित नहीं किया जा सकता, जब तक निजी क्षेत्र को उसमें संलग्न नहीं किया जाए। कंपनियां लघु वित्त के जरिए महिला उद्यमियों की मदद कर सकती हैं और उनके उत्पादों एवं सेवाओं को आपूर्ति श्रृंखलाओं में जोड़ सकती हैं। इंटरनेट और आईसीटी तक महिलाओं की पहुंच बढ़ाने से कनेक्टेड महिलाओं का उभरता बाजार तैयार हो सकता है जोकि कारोबार के अवसरों से जुड़ सकती हैं। इसके अतिरिक्त नियोक्ता के रूप में निजी क्षेत्र महिलाओं को घर और सार्वजनिक स्थानों पर हिंसा से सुरक्षा प्रदान कर सकता है। वह समावेशी परिवहन के जरिए महिलाओं का आवागमन सुनिश्चत कर सकता है।

संवैधानिक सूची के साथ-साथ सभी प्रकार के भेदभाव या असमानताएं चलती रहेंगी लेकिन वास्तिविक बदलाव तो तभी संभव हैं जब पुरुषों की सोच को बदला जाये। ये सोच जब बदलेगी तब मानवता का एक प्रकार पुरुष महिला के साथ समानता का व्यवहार करना शुरु कर दे न कि उन्हें अपना अधीनस्थ समझे। यहाँ तक कि सिर्फ आदमियों को ही नहीं बल्कि महिलाओं को भी औज की संस्कृति के अनुसार अपनी पुरानी रुढ़िवादी सोच बदलनी होगी और जानना होगा कि वो भी इस शोषणकारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक अंग बन गयी हैं और पुरुषों को खुद पर हावी होने में सहायता कर रहीं हैं।हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि हमारा सहभागी लोकतंत्र, आने वाले समय में और पुरुषों और महिलाओं के सामूहिक प्रयासों से लिंग असमानता की समस्या का समाधान ढूँढने में सक्षम हो जायेंगा और हम सभी को सोच व कार्यों की वास्तविकता के साथ में सपने में पोषित आधुनिक समाज की और ले जायेगा।

महिला स्वास्थ्य को बेहतर करने के लिए सरकार को स्वास्थ्य बजट पर ध्यान देने की जरूरत है। हमें शिक्षा के क्षेत्रों में अपने प्रयास को बढ़ाने की जरूरत है। राजनीतिक असमानता को दूर करने में 95 साल जबकि आर्थिक असमानता को दूर करने में 257 साल लगने का अनुमान है।महात्मा गांधी ने सदैव महिलाओं को ऊंचा दर्जा दिया। वह अपने सहयोगियों और देशवासियों से भी यही आशा करते थे कि वे महिलाओं को सम्मान दें, उनका महत्व स्वीकारें। आज गांधी जी के सपनो को तभी सच कर सकते जब आप महिलाओं के प्रति अपनी रवैया बदले। एक सशक्त समाज का तभी निर्माण हो सकता है जब पुरुषों और महिलाओं की भागीदारी सामान्य रूप से हो।

©अजय प्रताप तिवारी चंचल, इलाहाबाद

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