लेखक की कलम से

मुमकिन, माना मीडिया ने! नामुमकिन कर डाला योगीजी ने !!

यूं तो हमारे व्यवसाय में फ़ेक (फर्जी) और पेइड (दाम चुकाई) न्यूज का प्रचलन अरसे से है। खासकर चुनाव के दौरान। अब ”प्लांटिंग”(रोपना) भी चालू है। इसीलिये हमलोग तो पसोपेश में उलझे रहते हैं कि पत्रकारिता आखिर है क्या? व्रत है या वृत्ति? मगर गत दिनों लखनऊ मीडिया जगत में हरित क्रान्ति विस्तीर्ण हो गयी। शायद वनमहोत्सव का पखवाड़ा था! मसलन, निपुण विप्रशिरोमणि, मगध से विदर्भ तक वास कर चुके, पंडित पुण्य प्रसून वाजपेयी ने छह अप्रैल को खबर चलायी कि ”पीएम ने सीएम को जन्मगांठ की शुभकामनायें नहीं भेजीं।” हालांकि राजधानी के दैनिकों में मुखपृष्ठ पर तभी खबर साया हुयी थी कि भाजपा प्रधानमंत्री भाजपाई मुख्यमंत्री की लंबी आयु के इच्छुक हैं। अर्थात वह सहाफिये—आजम मृषाभाषी हो गये। पुण्यजी की सुकृति चर्चित हो गयी। अचरज का आधार यह है कि एक प्राचीन आम मान्य रिवाज इससे टूटा था। कोरोना काल का प्रोटोकाल तो ऐसा रचा नहीं गया है कि ”हैप्पी बर्थडे” वर्जित हो गया हो। बल्कि दीर्घायु की कामना कोविड को हराने हेतु आज ज्यादा जरुरी है। मोदी तो अपनी चिरबैरी सोनिया को भी शतायु की कामना भेजते हैं। भले ही मात्र प्रथा के नाते। मगर उनके संगीसाथी तो चाहेंगे कि रायबरेली में उनकी याद में एक सड़क का नामकरण शीघ्र ही रख दिया जाये।

कुछ मिलती—जुलती खरी टिप्पणी आई बिहार के ही एक अन्य एंकर जनाब अजीत अंजुम की। (उनके नाम का अर्थ है ”नज्म का बहुवचन।” नक्षत्रमंडलनुमा।) आभा तथा कान्तियुक्त। उन्होंने तो ऐसी खबर चलायी कि मानों मोदी ने योगी की सुपारी दे डाली हो।  योगीजी के हमवतनी स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा जी की उक्ति याद आती है। वे बताते थे कि इन्दिरा गांधी मुख्यमंत्रीरुपी पौधे बोतीं थीं। कुछ समय बाद उखाड़ कर परखतीं थीं कि कहीं जड़े तो मजबूत नहीं हो गयीं? कांग्रेसी प्रधानमंत्री का तो मुख्यमंत्री बदलने का ओलंपिक रिकॉर्ड रहा। टाइम्स आफ इंडिया के मेरी साथी आर.के. लक्ष्मण ने तब निहायत मर्मस्पर्शी कार्टून बनाया था। हैदराबाद विमानस्थल पर टोपी पहने कई कांग्रेसीजन कतार में खड़े दिखे। उनसे इन्दिरा गांधी कह रही हैं : ”बायें से तीसरे। आप आंध्र प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री होंगे। क्या नाम है आपका?” त​ब तक हैदराबाद में दो साल में पांच मुख्यमंत्री पलटे जा चुके थे।

यूं नरेन्द्र मोदी तो कहीं अधिक बलवान हैं। किन्तु अटल बिहारी वाजपेयी जैसे बेतुके रुप से प्रताड़ित नहीं करते हैं। जैसे एकदा लखनऊ में हुआ था। बेगम हजरत पार्क में भाजपा की सभा थी। कलेक्ट्रेट में लोकसभाई नामांकन दाखिल कर अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा बेगम हजरत महल पार्क में उद्बोधन होना था। राजनाथ सिंह, लालजी टंडन आदि का भाषण हुआ। फिर धन्यवाद का भाषण हो गया। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का नाम तक नहीं पुकारा गया। मंच से उतरकर वे घर चले आये। पैराशूट से कभी धरा पर उतरा संजय गांधी अपने मुख्यमंत्री पंडित नारायणदत्त तिवारी से ऐसा ही अभद्र व्यवहार करता था?

वापस लौटें समाचार के आयाम, गुण, विषयवस्तु और प्रस्तुतिकरण पर। वहीं मोदी—योगी के बधाई खबर पर। रिपोर्टर की भांपने, ताड़ लेनेवाली अर्हता की। पता चला कि ट्विटर पर पीएम का सीएम को बधाई संदेश नहीं आया तो साथियों ने दिगामी तीर से तुक्का लगाया। इन महारथियों को याद नहीं रहा कि ट्विटर का झगड़ा भारत सरकार से चल रहा है। मोहन भागवत और वैंकय्या नायडू का ट्विटर हटा दिया गया, फिर चालू हुआ। इधर मोदी के लोगों ने ट्विटर पर संदेश प्रसारित करना कुछ वक्त से रोक दिया है। पर प्रधानमंत्री ने तीरथ सिंह रावत (उत्तराखण्ड) और योगी आदित्यनाथ से फोन पर बात की। यह शुभ  संदेश प्रचारित नहीं हुआ। मगर तभी ढेर सारे अनुमान, अन्दाज और अटकलें चालू हो गयीं। माहौल भी ऐसा बना कि मीडिया ने काबीना परिवर्तन की लहर तक चलायी गयी। जो बवंडर तो बन न सकीं। बस फिस हो गयी। इस पूरे प्रकरण में वरिष्ठ टीवी संपादक साथी वासिन्द मिश्र की राय बहुत तर्कसम्मत लगती है। यदि कोविड से लड़ने के प्रबंधन में योगीजी विफल रहे तो फिर कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश आदि के भाजपायी मुख्यमंत्री पहले हटें। वे तो सफलता से दूर थे। योगीजी तो अनवरत युद्धरत रहे हैं।

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©के. विक्रम राव, नई दिल्ली                                           

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