लेखक की कलम से

मरने दो उनको …

 

“बेबकूफ लड़की आज फिर दादू को तुमने छुपकर के चाकलेट दी।”

“नहीं मम्मी जी।”

“झुठ, सफेद झूठ, दी है तुमने देख शुगर बढ़ा हुआ आ रहा है।जरा सी बात क्यों नहीं समझती जिया तुम।”

“सब समझती हूँ।”

“बेटा अगर दादा जी यह सब खायेगें तो ज्यादा दिन नहीं बचेंगे और उनकी पेंशन बंद हो जायेगी। मालूम है कितनी पेंशन है पूरे 80 हजार रुपए हर माह के। पागल लड़की समझती क्यों नहीं। यह ऐसो आराम सब उनसे ही है।”

“छी: मम्मी आप की बातों से मुझे शर्म आती है, आप तो बस यही चाहते हो दादू कैसे भी जिंदा रहे, मरने दो मम्मी दादू को, कैद नहीं कर सकते आप। इस दुनिया में कोई अमर नहीं है। जी लेने दो न उनको उनकी मर्जी से, खा लेने दो हलुआ, पूड़ी, दही बड़ा, चाकलेट, जूस, आईसक्रीम 85 साल के हो गये हैं वो अब कब तक जिंदा रखोगे उनको दवा के सहारे। मुझसे कहते हैं बेटी बाहर ले चल थोड़ा घुमा दे, गुपचुप खिला दे, नये कपड़े दिलादे। मुझे तेरी दादी के पास जाना है, तेरी माँ जाने नहीं देती।

सच में माँ वो कह रहे थे जहर ही ला दे टाफी नहीं ला सकती तो। घर को घर रहने दो माँ हास्पिटल मत बनाओ। माँ मर जाने दो दादू को, खुश होकर रहने दो, जब तक जी रहे है।”

“ओह मेरी बच्ची मैं तेरी बात समझ गयी

तुम दोनों माफ कर दो मुझे।”

“चलो आज से ही उनके पसंद का खिलाऊंगी।”

 

 

©ऋचा यादव, बिलासपुर छत्तीसगढ़

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