लेखक की कलम से

कनुप्रिया – पौराणिक कथा नवीन बौद्धिकता …

पुण्यतिथि 4 सितंबर पर विशेष


 

डॉ. विभा सिंह | ‘कनुप्रिया’ डॉ. भारती की मिथकीय धरातल पर आधारित रचना है। इसमें राधा-कृष्ण के पौराणिक चरित्र के माध्यम से युद्धजनित वातावरण की विभीषिका में प्रेम की उपयोगिता एवं क्षण के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। राधा यहाँ विवेक से अधिक तन्मयता, इतिहास की उपलब्धियों से अधिक सहज जीवन में सार्थकता पाती है। ‘नयी कविता’ के मिथक काव्यों में वैचारिक द्वन्द्व और परिवेशजन्य विडम्बनाओं के साथ अस्तित्त्व संघर्ष तनाव, घुटन आदि को देखा जा सकता है। इसके लिए महाभारत का आकर्षण इनमें अधिक रहा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि महाभारत के प्रसंग यथार्थ के जिन रुपों को प्रकट करता है वह आज की स्थितियों और विडम्बनाओं को ‘अर्थ’ प्रदान करने में अधिक सक्षम है।

‘कनुप्रिया’ और ‘अंधायुग’ डॉ. भारती की एक ही भावभूमि पर रचित कृत्तियाँ हैं। जिनका परिवेश भले ही भिन्न हो परन्तु कथानक एक धरातल पर चलती हुई एक-दूसरे की पूरक बनती है। इन दोनों रचनाओं में डॉ. भारती ने महाभारत के समापन के कथांश के माध्यम से आधुनिक युग की संवेदना को व्यक्त किया है।

‘अंधायुग’ में गांधारी, युयुत्सु और अश्वथामा जिस समस्या को अपनी दृष्टि से देखते हैं, ‘कनुप्रिया’ में राधा उसी समस्या को अपनी दृष्टि से देखती है। यहाँ राधा इतिहास-निर्माण, युद्ध-नियति और मूल्यों के प्रश्न को बौद्धिक नहीं ‘भावाकुल तन्मयता’ की दृष्टि से देखती है। राधा का वैयक्तिक प्रेम सार्वभौमिक सरोकारों को अपने अन्दर समेटता हुआ, अपने अनजान में प्रश्न के ऐसे संदर्भ को उद्भासित करती है जो पूरक सिद्ध होते हैं। युद्धजनित वातावरण की विभीषिका में ‘प्रेम’ की उपयोगिता एवं ‘क्षण’ का महत्त्व सिद्ध करती हुई ‘कनुप्रिया’ सहज मन से जीवन जीने में ही जीवन की सार्थकता पाती है। वस्तुतः इसमें डॉ. भारती ने राधा-कृष्ण के प्रणय प्रसंग के माध्यम से मिथकीय संदर्भों के सहारे आधुनिक मानव की युद्धोत्तर मनःस्थिति को उद्घाटित करने का प्रयास किया है।

‘कनुप्रिया’ का कथानक ‘पूर्वराग’, ‘मंजरी परिणय’, ‘सृष्टि संकल्प’, ‘इतिहास’ एवं ‘समापन’ पाँच खण्डों में विभाजित है। ‘कनुप्रिया’ में कथा तो नाम मात्र है, यहाँ विभिन्न परिस्थितियों के माध्यम से उनके घटित होने का आभास मात्र है।

‘पूर्वराग’ में ‘कनुप्रिया’ की वे स्मृतियाँ है जो उन्होंने कृष्ण के साथ भोगा था। यहाँ राधा की तन्मयता की स्थिति का चित्रण है। ‘मंजरी परिणय’ में राधा स्वयं को कृष्ण की जन्म-जन्मान्तर की रहस्यमयी लीला संगिनी मानती है। इसमें राधा की आंतरिक मनःस्थिति का चित्रण है। वह कभी कृष्ण को शिशु, जिसे वह आँचल में छिपाये है, कभी सखा, कभी सहोदर, कभी लक्ष्य या आराध्य के रूप में एक साथ देखती है। ‘सृष्टि-संकल्प’ में राधा को कनु के सृजन संगिनी के रूप में चित्रित किया है। सृजन-विनाश के अविराम जीवन-प्रक्रिया के संदर्भ में राधा ही कृष्ण के लिए अर्थवान है। इसी भाव का विस्तार ‘आदिम भय’ में हुआ है। ‘केलि सखी’ में वह इस भय का अर्थ जान पाती है और प्रकृति और सृजन का स्वरूप पुनः राधामय हो जाता है। यहाँ कवि ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और प्रकृति में राधा के स्वरूप को दिखाया है। ‘इतिहास’ खण्ड में अतीत स्मृतियों का स्मरण करके राधा विगत चरम साक्षात्कार का क्षण सारे इतिहास से बड़ा और सशक्त मानती है। ‘उसी आम के नीचे’ गीत में राधा तन्मयता के क्षणों में व्यतीत किये हुए अपने मिलन के क्षण के प्रति शंका व्यक्त करते हुए सोचती है कि वह यथार्थ था, स्वप्न था या मायाजाल। ‘अमंगल छाया’ में राधा स्मृति-शेष प्रणय के चिन्हों को उजड़ते हुए देखती है और उसकी जगह युद्ध संबंधी घटनाओं को घटित देखती है। जिसकी आम्रमंजरियों से कृष्ण ने उसकी माँग भरी थी, सेना के मार्ग में बाधक होने के कारण आज उसे काट दिया जाएगा। युद्ध की अमंगल छाया से सशंकित हो ‘एक प्रश्न’ में राधा क्षण भर के लिए यह स्वीकार कर लेती है कि मेरे तन्मयता के गहरे क्षण सिर्फ भावावेश थे, अर्थहीन थे – परन्तु दूसरे ही क्षण उसके मन में प्रश्न उठता है – तो प्रेम, करुणा, रागात्मकता आदि को जर्जरित करने वाले युद्ध की सार्थकता क्या है? राधा कृष्ण से कहती है कि अर्जुन की तरह मुझे भी समझा दो कि सार्थक क्या है? ‘शब्द अर्थहीन’ में इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति दी गई है। राधा के लिए शब्द अर्थहीन है, केवल भाव सार्थक है। ‘समुद्र-स्वप्न’ में युग-बोध की दृष्टि से युद्ध के औचित्य-अनौचित्य के प्रश्नों पर विचार किया गया है। यहाँ महाभारत युद्ध के पश्चात् कृष्ण की विक्षोभावस्था का चित्रण हुआ है। महाभारत युद्ध के संदर्भ में राधा के स्वप्न का प्रतीकात्मक उल्लेख किया गया है। यहाँ कृष्ण की विवशता युग की असमर्थता का द्योतक है। मूल्यों के बिना लिया गया निर्णय बेमानी होता है – ‘विष भरे फेन’, ‘निर्जीव सूर्य’, ‘निष्फल सीपियाँ’, ‘निर्जीव मछलियाँ’ — सभी कृष्ण के सारे प्रयत्न को निरर्थक और निष्फल करार दे रहे हैं। अंत में हारकर कृष्ण राधा के वक्ष के गहराव में अपना माथा रखकर सो जाते हैं परन्तु नींद में भी स्वधर्म और अधर्म के बारे में सोचकर, चौंककर जाग जाते हैं और कहते हैं -‘‘यदि कहीं उस दिन मेरे पैताने / दुर्योधन होता तो —’’

निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ में भी असमर्थता का ऐसा ही चित्रण मिलता है – ‘‘फिर खिंचा न धनु / मुक्त ज्यों बंधा मैं हुआ त्रस्त’’ सम्पूर्ण संघर्ष झेलने के बाद कृष्ण असफल हो इतिहास को जीर्ण वसन की भाँति त्याग कर राधा की आकांक्षा करते हैं। यहीं से ‘समापन’ प्रारंभ होता है। राधा ने कृष्ण के कालावधिहीन रास को अस्वीकार कर अपने व्यक्तित्त्व की रक्षा ऐसे ही क्षण को समर्पित करने के लिए किया था जिससे इस बार इतिहास को गति देते समय कृष्ण अकेले न छूट जाए।

वस्तुतः ‘इतिहास’ और ‘समापन’ में डॉ. भारती ने राधा के प्रणय को एक नयी दृष्टि और नया परिप्रेक्ष्य दिया है। कवि राधा-कृष्ण के माध्यम से स्त्री-पुरुष के बीच समता, बराबरी और सामंजस्य स्थापित करते हुए एक ऐसे संबंध की कल्पना करते हैं जिसे मुक्त नियन्त्रण कह सके। यहाँ राधा-कृष्ण की विलास सहचरी से भिन्न एक आधुनिक युग-चेतना-सम्पन्न नारी के रूप में स्वतंत्र व्यक्तित्त्व का बोध कराती है, जो लेखक के अस्तित्त्ववादी दृष्टिकोण को दर्शाती है। ‘कनुप्रिया’ नर-नारी के संबंधों की युगीन संदर्भों में व्याख्या करती है। डॉ. भारती की परिकल्पना ने यहाँ राधा-कृष्ण के व्यापक प्रेम को आधुनिक संकट के साथ जोड़कर एक नया आयाम देने का प्रयत्न किया है। इस संबंध में अज्ञेय लिखते हैं – ‘‘ ‘कनुप्रिया’ में धर्मवीर भारती ने कृष्ण के प्रति राधा के प्रेम को जिस नये रूप में देखा है या दिखाना चाहा है, उसका आधार केवल पुरानी बात को नये मुहावरे में ढालने का प्रयत्न-भर नहीं है। भारती का उद्देश्य इससे बड़ा है, क्योंकि वह राधा-कृष्ण के प्रेम को भी एक बृहतर रूप में देखते हैं – ऐसा रूप जिसे देश-कालातीत कहा जा सकता है, क्योंकि वह सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं।’’  अज्ञेय का यह कहना उचित ही है क्योंकि भारती का उद्देश्य जयदेव, विद्यापति और सूरदास की राधा रूपांकन या चरित्रंकन करना नहीं रहा है। यहाँ अयोध्या सिंह ‘हरिऔध’ की राधा का अगला चरण है। जिस तरह से ‘हरिऔध’ ने ‘प्रियप्रवास’ में राधा की वियोग-कातरता को विश्व-प्रेम एवं लोक-सेवाभावना से युक्त दिखाया है, उसी प्रकार भारती की ‘कनुप्रिया’ का कथ्य पौराणिक एवं परम्परागत होते हुए भी नारी के स्वतंत्र अस्तित्त्व और व्यक्तित्त्व की परिचायक, आधुनिक नारी की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। उसका एक प्रश्न है जो ‘साकेत’, ‘यशोधरा’, ‘कामायनी’ से होकर ‘कनुप्रिया’ तक बार-बार सशक्त रूप में टकराता रहता है। वह कृष्ण से प्रश्न करती है –

    ‘‘प्रगाढ़ के क्षणों में अपनी अंतरंग

    सखी को तुमने बाँहों में गूँथा

    पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु?’’

    कहा जा सकता है कि ‘कनुप्रिया’ में डॉ. भारती ने आधुनिक परिवेश में राधा और कृष्ण के प्रणय संबंध को नये ढंग से प्रस्तुत करते हुए प्रेम को मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया है। नारी और पुरुष के साहचर्य से ही सृष्टि का सृजन और विकास संभव है। सम्पूर्ण कथा पौराणिक होते हुए भी नवीन बौद्धिकता लिए हुए है। डॉ. भारती कहते भी हैं – ‘‘यह पुरानी राधा आधुनिक युग की राधा है जिसमें कि प्रेम भी है, समर्पण भी है और नया संकल्प भी।’

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