लेखक की कलम से

गिरिजा कुमार माथुर के काव्य में युगबोध …

गिरिजा कुमार माथुर उन आधुनिक कवियों में से हैं जो किसी एक बिंदु पर आकर रूके नहीं, न ही किसी एक परिपाटी से बंधकर रह गए। उनका कवि व्यक्तित्त्व निरंतर विकासशील रहा है। उनके संबंध में यह धारणा प्रचलित है कि वे आधुनिक संवेदन और युगबोध के निकट होकर भी अपनी मौलिक प्रकृति में रोमैंटिक कवि हैं। उनके काव्य में मानवीय और सामाजिक अन्तर्वस्तु पर अधिक बल नहीं दिया गया है। जबकि सत्य यह है कि उनकी सृजन मानसिकता में देश के सामाजिक, राजनीतिक चक्र की अनुगूँजें पूर्ण रूप से व्याप्त है। वे अपने पड़ोस से लेकर विश्व तक में अभाव, गरीबी, संघर्ष और विनाश देख रहे थे। वे स्वयं लिखते है-“मेंरी कविताओं के बारे में एक और बात बार-बार कही जाती है कि मैं मूलतः प्रेम, माधुर्य और सौन्दर्य या रंग, रस, रोमांस और देहरस का कवि हूँ लेकिन प्रेम और माधुर्य, संघर्ष और यथार्थ की पहचान मुझे समान रूप से सहज रही है। मैं जहाँ जन्मा था वह कालिदास की भूमि है और कालिदस सिर्फ़ प्रकृति, स्त्री, सौन्दर्य और शृंगार के ही कवि नहीं हैं, बाद के ‘रघुवंश ’ जैसे काव्य में इतिहास और विराट् को भी उन्होंने समेंटा है। भर्तृहरि के श्रृंगार, नीति और वैराग्य शतक की परंपरा का भी यह प्रदेश है। इतिहास चेतना, जुझारूपन, यहाँ की जन-परम्परा हैं। यह सही है कि जीवन के सुंदर मधुर-मांसल, उष्म कमनीय तथा प्रगाढ़ ऐन्द्रिय अनुभवों को व्यक्त करने के लिए मैंने अपनी कविताओं में अपने समूचे संवेदनात्मक व्यक्तित्व को मुक्त रूप से उड़ेल दिया है। मैंने जीवन की आसक्ति और जीवन का उजास पूरा मुक्त जिया है। इसलिए उन कविताओं ने लोगांे का बहुत ध्यान खींचा है। लेकिन प्रेम और सौन्दर्य संबंधी कविताओं में रीतिकालीन शृंगारिकता, रुप-रसकलता, रुग्ण विलासिता या मात्र देह-रस नहीं है। उसमें परिवार, प्रेम, प्रणय, ममता और स्वस्थ उष्मा की अभिव्यक्ति हुई है जो मनुष्य को शक्ति एवं सामथ्र्य देता है। ( मुझे और अभी कहना हैं )

 

निःसंदेह प्रेमानुभूति और प्रणयाभिव्य का चित्रण उनके काव्य की अपनी विषिष्टता है। जिन लोगों को उनके काव्य में केवल रोमानी गंध आती है उन्हें उनकी कविताओं में व्याप्त-जन सामान्य और उन के दुःख-दर्द की ओर भी ध्यान देना होगा । भारत का प्राचीन गौरवमय इतिहास, भारत की प्राचीन संस्कृति आदि का विस्तृत वर्णन कवि की देशानुराग व्यंजक कविताओं में दिखाई पड़ती है। आधुनिक युग में जन शक्ति के सामने साम्राज्यवाद पराजित हुआ और देष को स्वतंत्रता मिली। एक लम्बे संघर्ष और लम्बी प्रतीक्षा के बाद देश स्वतंत्र तो हुआ लेकिन विभाजन की पीड़ा और ढेर सारी समस्याओं को साथ लेकर। स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रसन्नता में कवियों में राष्ट्रीय उल्लास फूट पड़ता है। क्योंकि उनका विश्वास है कि ‘पंद्रह अगस्त’ की राजनीतिक स्वतंत्रता देष की आर्थिक और सामाजिक संघर्षों के भी अंत का सूचक है। इसके ठीक विपरीत माथुर अपनी ‘पंद्रह अगस्त’ कविता में जागृति का संदेशवाहक बन के नौजवानों को अपने भावोच्छवास को नियंत्रित रखने को कहते हैं। उन्हें सावधान करते हुए कहते हैं कि शत्रु तो घरती से चला गया है; किंतु उसकी छाया अभी भी देश पर मंडरा रही है। अतः कवि उन्हें सावधान रहने को कहता है-

“आज जीत की रात

पहरुए सावधान रहना खुले देश के द्वार

अचल दीपक समान रहना”

हर्ष और भय के द्वंद्व का स्वर अंत तक कविता में भावोच्छ्वास को नियंत्रित रखते हुए ”उस एतिहासिक घड़ी में उत्पन्न भावबोध को एक नया आयाम देता है।” (कविता के नये प्रतिमान: नामवर सिंह – पृष्ठ-65)

आजादी के उल्लास को भंग करती ‘सांयकाल’ कविता है। यह वह दौर था जब देश में जगह-जगह सांप्रदायिकता की आग लगी हुई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के छह महीने के भीतर गाँधी की हत्या हो गई। साम्राज्यवादी कूटनीतिक छल-प्रपंच को माथुर ने निकट से देखा था; चारो ओर हिंसा, कपट, घृणा, अविष्वास व्याप्त था। गाँधी की हत्या से विक्षुब्ध हो क्षोभ में भरकर वे लिखते हैं-

“किंतु तिमिर फिर उभरा

करने अंतिम अस्त्र प्रहार धर्म जाति हिंसा की लेकर

तक्षक-सी तलवार मनुज जला शैतान उठा

देवत्व हो गया क्षार’’

तत्कालीन भयावह परिस्थितियों का चित्रण इन पंक्तियों में मिलता है। ‘एशिया का जागरण’ उनकी एक महत्त्वपूर्ण कविता है, जिसके संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं-“सामन्तशाही और साम्राज्यवाद के शोषण की ऐसी तीव्र अनुभूति कम कविताओं में मिलती है।” साम्राज्यवादी दासता की पीड़ा, अन्याय एवं भेदभाव की व्यथा-कथा बन कर इन शब्दों में प्रकट हुई है-

“मेंरी मानवता पर रक्खा

– – –

मेंरी छाती पर रखा हुआ साम्राज्यवाद का रक्त कलश

मेंरी धरती पर फैला है मन्वन्तर बनकर मृत्यु दिवस।”

माथुर उन कवियों में से हैं जिनका मनोबल कभी क्षीण नहीं हुआ। उनके हर गीत में देश के प्रति अपार प्रेम और प्रतिक्रियावदी शक्तियों के प्रति घृणा एवं जनता की शक्ति में विश्वास प्रकट होता है।

सांस्कृतिक विरासत की रक्षा साम्राज्यविरोधी आन्दोलन का अभिन्न अंग होती है। निराला ने उसकी रक्षा ही नहीं की उसका विकास भी किया। निराला-प्रभावित माथुर निराला का अभिनंदन करते हैं-‘नव मानवता आ गयी क्रांति की सिंहद्वार’ यह नव जाग्रत एशिया की जनता है। वे लिखते हैं-

“तुम कालिदास, तुलसी, रवीन्द्र के अमर चरण चिन्हों पर रखकर चरण चलो”

उनकी अनेक कविताओं में समाज-व्यवस्था और राजनीतिक-व्यवस्था में पिसते जन- सामान्य के दुःख, दर्द व छटपटाहट को देखा जा सकता है-मशीनी सभ्यता के इस युग में आदमी को चारों ओर मशीनों ने घेर लिया है और वह स्वयं भी एक ‘मशीनी पूर्जा’ बन गया है। निम्न मध्यवर्ग की विवशताओं और उच्च वर्ग की सुविधाओं को आमने सामने रखकर जिंदगी के यथार्थ का चित्रण ‘मशीन का पुर्जा’ कविता में किया है।

स्वतंत्रता के बाद जीवन में जो अनेक प्रकार की विकृतियाँ आई उसकी अभिव्यक्ति माथुर के काव्य में व्यंग्यतात्मक शैली में हुआ है। धोखा घड़ी और बेमानी का धंधा चल गया है-दवा के नाम पर खड़िया मिट्टी की गोलियाँ बिकती है। सरकारी कर्मचारी कामचोर है और योग्यता के स्थान पर सिफारिश नौकरी का आधार बन गई। ऊँचे आदर्शों का बखान करने करने वाले लोग भ्रष्ट हो गये हैं। ‘एक अधनंगा आदमी’ इस दृष्टि से उनकी उल्लेखनीय रचना है। आजीविका की तलाश में भटकते हुए आर्थिक, रोग कष्ट से जूझते अपने कवि व्यक्तित्व के संताप को उन्होंने महाकवि ग़ालिब पर लिखी अपनी कविता ‘‘आने वाले अंदलीबों’’ में समेंटा है।

बौनांे की दुनिया में ‘क्योंकि हम जन हैं’ कहकर कवि जिस साधारणता की ओर संकेत करता है इससे स्पष्ट है कि वह अपने परिवेश से जुड़ा हुआ है-अपने बाहर बिखरे समाज की पीड़ा, समाज में व्याप्त स्थितियाँ उन्हें पीड़ित करने लगती हैं। ‘आदमी का अनुपात’ उन्हें पता है।

माथुर की इन कविताओं के विवेचन-विष्लेषण से स्पष्ट है कि उनकी कविताओं में युग की सारी विसंगतियों का गहरा अहसास है। वे गहरी संस्क्ति के साथ अपने युग जीवन का अनुभव करते हैं और उनमें एक दायित्व भी निहित है। कोई भी प्रवृति किसी रचनाकार में कमोवेश हो सकती है, परंतु उसे किसी एक खाँचे में कैद कर देना उचित नहीं हैं। उनकी आरंभिक कविताओं को आधार बनाकर उसमें केवल प्रेम की वासनात्मक मांसलता को रेखांकित कर उनके कवि-व्यक्तित्व को सीमित करने का प्रयास उचित नहीं हैं। जैसा कि अपने बारे में वे स्वयं कहते हैं-“मैंने अपनी कविता में जिंदगी के कठिन और जटिल, कटु और तिक्त, सूक्ष्म और प्रत्यक्ष, मोहक और मधुर अनुभवों के भरपूर आस्वाद को निःसंकोच वाणी दी है।” अंततः रामविलास शर्मा के कथन से सहमत होते हुए उन्हीं के शब्दों में कहा जा सकता है कि -“गिरिजा कुमार माथुर नये युग के वैतालिक हैं।… सुंदर लोरियों से लेकर एशिया के जागरण की गंभीर गति तक वह सर्वत्र अपने कौशल में समर्थ दिखाई देते हैं।… उनकी क्रांतिकारी भावनाएँ युग की प्रतिध्वनि है; उनका यथार्थवाद हिंदी कविता की नवीन शक्तिशाली धारा है।”

 

  ©डॉ. विभा सिंह, दिल्ली    

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