लेखक की कलम से

कामकाजी स्त्री की चुनौतियां …

 

कहते हैं कि परिवर्तन संसार का नियम है और समय के साथ स्त्री की भूमिका में भी बदलाव आये हैं। घर की जिम्मेदारी सँभालते – सँभालते उसके पाँव दहलीज के पार गए और अब घर के साथ उसपर बाहर की भी जिम्मेदारी आन पड़ी है। घर, बच्चे और बाहर अपने कैरियर, सभी कुछ को वह संभाल रही है। हर दौर की अपनी चुनौतियाँ होती हैं। वर्तमान समय में भी स्त्री अलग तरह की चुनौतियों का सामना कर रही है।

घर और कैरियर के साथ समन्वय स्थापित कर पाना सबसे प्रमुख चुनौती है। यूँ तो अधिकांशतः कामकाजी महिलाओं की मदद के लिए कामवाली ( या हेल्पिंग हैंड ) का विकल्प खुला रहता है और वे उसको अपनाती भी हैं किन्तु इसके उपरांत भी उनकी बहुत सारी ऐसी जिम्मेदारियां भी होती हैं जिसे वे बाँट नहीं सकतीं। मसलन, खाना बनाना विशेषतः बच्चों के लिए, बड़ों- बूढ़ों की दवाई का ध्यान रखना, बच्चों का होमवर्क कराना, उनको समय देना या बच्चों की देखभाल करना और मेडिकल इमरजेंसी के समय देखभाल। ये मात्र कुछ कार्य हैं जिन्हें वह किसी और के भरोसे नहीं छोड़ सकती। उसके अलावा चाहे वह नौकरी करती हो या बिज़नेस, उससे जुड़े भी बहुत सारे कार्य होते हैं जैसे प्रेजेंटेशन तैयार करना, कर्मचारियों से कार्य करवाने की तैयारी करना या खुद करना, लोगों से संवाद स्थापित करना, समय पर कार्य को पूर्ण करने के लिए प्रयास करना जैसे अनगिनत टास्क होते हैं जिनको वह पूरा करती है। इनके बीच समन्यव बनाये रखना आसान नहीं होता।

सेहत कामकाजी महिलाओं से जुडी प्रमुख समस्याओं में से एक है। घर और काम को सँभालते हुए जिस चीज से सर्वाधिक समझौता होता है, वह है स्वास्थ्य। उसका खानपान ठीक तरह से नहीं हो पाता है। रात को देर से सोने और सुबह जल्दी उठने के कारण नींद पूरी ना हो पाती है। सर दर्द, बदन दर्द, माइग्रेन,अनिद्रा जैसी बीमारियां स्थायी हो जाती हैं। रोज पेन किलर लेकर काम करने से उनके साइड इफेक्ट्स को भी झेलना होता है। इस प्रकार वह अनेक प्रकार की बीमारियों को जाने – अनजाने निमंत्रण दे बैठती है।

काम के कारण सामाजिक सम्बन्ध तो प्रभावित होते ही हैं, निजी तौर पर भी उसका प्रभाव उठाना पड़ता है। अपेक्षाओं का भार उठाए प्रत्येक रिश्ते को बुनने में लगी रहती हैं। दाम्पत्य जीवन में इसके प्रभाव देखने को मिलते हैं। एक दूसरे को समय ना दे पाना, आपसी समझ में कमी आना, संबंधों में मधुरता में कमी जैसी समस्याएं आने लगती हैं।

 

कई बार महिलाऐं अपने कार्यस्थल पर भेदभाव और शोषण का शिकार होती हैं। उनके लिए एक सहज़ और स्वस्थ वातावरण उपलब्ध नहीं हो पाता। इस कारण उनका व्यक्तित्व और वैचारिक स्तर, दोनों प्रभावित रहते हैं। वे परिवार, समाज और नौकरी जाने के डर से उसे प्रकट भी नहीं कर पाती हैं।

समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई होने के नाते स्त्री के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वह घर और बाहर के बीच संतुलन में स्वयं को ना खोती जाए, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। दोहरी जिम्मेदारी उठाना आज समय की मांग है। मात्र स्त्री का ही यह दायित्व नहीं बनता, पुरुष को भी इसे साथ में बाँटना होगा। घर के कार्यों में घर के सभी सदस्यों को आपस में जिम्मेदारियाँ निर्धारित करनी चाहिए। बच्चों की देखभाल के लिए ऑफिस में शिशुघर व आया हों। सेहत के लिए समय समय पर बुनियादी जांचें हों। मानसिक तनाव को कम करने के लिए नियमित काउंसलिंग कराई जाए। शोषण सम्बन्धी मामलों के लिए अलग से एक सेल का निर्माण अनिवार्यतः किया जाए जहाँ वे अपनी बात को खुलकर कह सकें।और ऐसे मामलों का निपटान तुरंत व बिना पहचान उजागर किये किया जाना चाहिए।

शारीरिक व मानसिक रूप से स्त्री स्वस्थ होगी, तभी स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा। अपने बच्चों, परिवार, समाज और स्वयं के लिए भी यह करना अपरिहार्य हो गया है। वह खुशियों के साथ जीना और उन खुशियों को सबमें बाँटने का जज्बा रखती है।

 

 

©भारती शर्मा, मथुरा उत्तरप्रदेश

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