लेखक की कलम से

उठाती हूँ कलम…

उठाती हूँ कलम

अपने भावों को देती हूँ शब्दों का रूप

और अंकित होने लगते हैं वे शब्द

पंक्ति-दर-पंक्ति विकसित होती कविता में

खिलने लगती हैं अक्षरों की कलियाँ

और पराग बन उड़ने लगते हैं कोमल भाव

अभिव्यक्त होने लगता है कोमल अंतस

सच्ची अनुभूतियाँ बिखेर देती हैं ढेर सारे रंग

 

कल्पनाओं की इस कोमल उड़ान के मध्य,

अचानक कोई झिंझोड़ देता है मुझे

ला पटकता है यथार्थ की कठोर शिला पर

स्वप्न टूट जाता है इस पीड़ा से

 

और तब देखती हूँ कि घेरे हैं चारों ओर से मुझे

दुःख से कातर लोग

 

दुखों की असमानता भी अंततः

एक केंद्र में साथ खड़ा कर देती है उन्हें

मलिन मुख वाले बच्चे

कातर निगाहों वाले वृद्ध

जीवन से निराश युवा

हर तरह के दुःख से पीड़ित स्त्रियाँ

या यूँ कह लो की संसार के सारे दुखों से संतप्त

कई सारे चेहरे

आशापूर्ण निगाहों से देखते हैं मेरी ओर

कि, कब जागेंगे मेरे मन में उनके लिए भाव,

और मेरी कलम कब बनेगी माध्यम,

उनकी पीड़ा को “जगत-पीड़ा” बनाने की.

©सरस्वती मिश्र, कानपुर, उत्तरप्रदेश

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