लेखक की कलम से

बिछुड़ जाना एक संपादकश्री का …

राष्ट्रभाषायी दैनिकों के संपादक के रोल में दिवंगत ललित सुरजन अपनी अलग मगर असरदार अभिव्यक्ति के लिये याद रहेंगे। उनके नाम के दोनों शब्दों में हेरफेर करें तो मायने खिल जायेंगे, निखर आयेंगे। सृजन (बजाये सुरजन अर्थात देवगण के), तथा ललित का अरबी पर्याय सलीस (क्लिष्ट शब्दावली से रहित) बनता है। उनकी शैली पर गौर करने से दोनों अर्थ मुफीद पड़ेंगे। वही कोमल कान्त शब्दावली बाबा नागार्जुन की रीति वाली। तुलना कीजिये उससे हरियाणवी हिन्दी (ठ,ण,ड़ आदि) से। गत डेढ़ सौ वर्षों की पत्रकारी हिन्दी में दो स्कूल रहे। काशीवाली (पं.कमलापति त्रिपाठी की संस्कृतनिष्ठ) और अवधवाली ( लखनऊ की टकसाल वाली)। सुरजनजी के लेखन में रवानगी, रफ्तार और बेरोकपन था, हालांकि छत्तीसगढ़ी (उनका प्रदेश) उपभाषा कर्णमधुर कभी नहीं कही जा सकती। इन्दूरी (नई दुनिया) और झारखण्डी (प्रभात खबर, एस.एन.विनोद और हरिवंश वाली) की सरलता और आगे देखूवाली शब्दावली की भांति। दोनों आम पाठक की बड़ी पसन्दीदा रहीं।

अन्य श्रमजीवी पत्रकारों तथा संपादकों से भिन्न, ललितजी को पत्रकारिता विरासत में मिली जो उनके पास आकर प्र​गतिवादी सोपान पर चढ़ी। अत: जन्मना दक्षिणपंथी थे। लेकिन पितृत्व के बनिस्बत वातावरण से वे अधिक प्रभावित रहे। विश्वशांति आंदोलन से जुड़ने पर उन्होंने बायें ओर रुख किया। वर्ग संघर्ष को जाना। अत: अर्धनारीश्वर बन गये। श्रमजीवी तथा स्वामी, संपादकनुमा। इस अवतार से समाचारपत्र को लाभ भी मिलते है। अभय छजलानी (राजेन्द्र माथुर के साथ) ने इस विधा को कारगर सिद्ध किया था। दोनों अविभाजित मध्य प्रदेश के मान्य सम्पादक  रहे।

 

बाबरी ढांचा का धराशायी होना कुछ पत्रकारों के जीवन में भूडोल जैसा आया था। मानों स्वीकृत मीडिया मूल्यों पर प्रहार हुआ हो। तब सुरजनजी कोपभवन में चले गये। हालांकि उजबेकी लुटेरे ज़हीरुद्दीन बाबर द्वारा मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के घर पर हमले के बारे में वे भली भांति जानते थे। अत: उन्हें खुश होना चाहिये था कि राम को ठौर तो मिला। संयोग है कि उनके कार्यालय (रायपुर का) पता समता कालोनी है। यह उनके चिंतन का प्रतीक है। वहीं भेंट होती थी, जब—जब रायपुर जाना होता था। अमृत संदेश के गोविंदलाल वोरा (मोतीलाल जी के अनुज) का कचहरी चौक कार्यालय भी मैं खटखटा आता था। हमारी छत्तीसगढ़ श्रमजीवी पत्रकार यूनियन (IFWJ) के अधिवेशन में जाना होता है।

 

ललितजी की प्रबंधकीय योग्यता अद्भुत रही। आठ संस्करण खोलना। उन्होंने दिखा दिया कि भाषायी मीडिया उद्योग का विकास कराना केवल अंग्रेजी संस्थानों की बपौती नहीं है। ललितभाई से एक समता पर तो मैं भी दावा कर सकता हूं। वे अप्रैल 1961 में पत्रकारिता प्रशिक्षु रहे थे। ठीक साल भर बाद 2 अक्टूबर 1962 को मैं बंबई ”टाइम्स आफ इंडिया” के प्रथम प्रशिक्षण बैच का ट्रेनी रहा। किन्तु ललितजी कुछ विशिष्ट रहे क्योंकि वे थांम्पसन प्रशिक्षार्थी रहे। अर्थात सीधे पैराशूट से पत्रकारिता में नहीं उतरे। हम दोनों को पत्रकारिता उत्तराधिकार में मिली थी। यहां मगर एक वंशानुगत विभिन्नता भी हममें रही। वे श्रमजीवी नहीं थे। मैं मेहनकश सहाफी हूं। वे पत्रकारिता में प्रशिक्षण के अत्यावश्यकता को समझते थे। हालांकि अभी भी भाषायी पत्रकारिता में विधिवत प्रशिक्षण गौण ही है। इसी क्रम में हमारे IFWJ ने 1165 युवाओं को दशक भर में तीन महाद्वीपों में पत्रकारिता प्रशिक्षण हेतु भेजा था। मगर आज अध्ययन का रुप बिगड़ा है। वह भी मीडिया उद्योग की भांति विरुप हो गया है। विकार का शिकार है। इसलिये ललित सुरजन भाई की क्षति ज्यादा अपूर्णनीय लगेगी।

 

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

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