लेखक की कलम से

बेटी हूँ मैं तुम्हारी …

 

बेटी हूँ मैं तुम्हारी,

मुझे  पराई न समझो,

अंश हूँ मैं तुम्हारा,

मुझे नकारा न समझो,

टुकड़ा हूँ मैं तेरे जिगर का,

मुझे कोख में युँ न मारो,

देती हूं खुशियाँ मैं सभी को,

चाहे कितने गम ने है घेरा मुझको,

ढूंढती हूँ बहाना मैं भी जीने का,

फिर भी चैन से जीने

नहीं देते सभी मुझको,

बेटी हूँ मैं तुम्हारी,

मुझे पराई न समझो,

नहीं हक है कुछ पर भी हमारा,

मायका में पराई हो सब कहते,

ससुराल में बहू हो तुम यहां की

बात मानो तुम सभी की,

रखती हूं ख्याल मैं घर में सभी का,

पर खुद हूं मैं तिरस्कार झेलती सभी का,

शादी हो जाएगी तुम्हारी,

तो बात मानना तुम अपने पति का,

ऐसी हिदायत घर से मुझे मिलता,

सोचती हूँ मैं क्यों नहीं कर

सकती अपने मन का,

क्यों पराधीन हूं मैं और किसी का,

चाहिए मुझे भी बेटों की तरह शिक्षा,

हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की इच्छा,

चाहती हूँ मैं भी चंद खुशियाँ ,

मुझे यूं गम में न डालो,

चाहती हूँ खिलना मैं भी फूलों की तरह,

तमन्नाओं को मेरी युँ न कुचलो,

बेटी हूँ मैं तुम्हारी,

मुझे पराई न समझो ।।

 

©पूनम सिंह, नोएडा, उत्तरप्रदेश

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