लेखक की कलम से

स्व: हूं आह हूं …

औरत के दोनों पहलू को लेकर बखूबी निभाया हैं

सही गलत तरीके बदल और बदलाव को सजाया हैं

समझ और समाज को अपने सपनों की हकीकत से दर्शाया हैं

कुल प्रविष्ठियां सरकारी संस्कृति संस्कारी कृति को समझाया हैं

 

एकाकी हूं एकांत हूं

स्व: हूं आह हूं

 

एक दिन का हिसाब हूं

ये समझ समाज की उपजाई हूं

 

एक सीख हूं सीखाई हूं

हर बार सुर्खियों में छाई हूं

 

इस घर को घरौंदा सा सजाती हूं

हर क़िरदार को बाखूबी निभाती हूं

 

मैं मां हूं तेरे बाप होने पा प्रमाण बताती हूं

घर की इज़्ज़त हूं ख़ुद का स्वाभिमान हूं

 

बुद्ध की तरह त्याग बलिदान का जवाब नही बन पाती हूं

फिर भी हर बार सीता सी ज़िन्दगी जीती,

राधा सा प्रेम करती रुकमणी। सा नाम लेकर जीती हूं

 

अबला नहीं आरी हूं

बेचारी नहीं तुम सब पर भारी हूं

 

नारी शक्ति की क्षमता को कम ना समझना

ये तुम्हारी दिमाग़ की भूल हूं,

उसकी चुप को एक सुनामी से कम न समझना

ये सवाल खड़े उसूल हूं

डरती दबती नहीं रिश्ता की मर्यादा ही समझना

ये संस्कृती का वसूल हूं

जब फुट पड़ेगा ज्वालामुखी अंदर का झुलस गए तो

मलाल ही समझना ये तुम्हारे संस्कारों पर पड़ी धूल हूं …

 

© हर्षिता दावर, नई दिल्ली

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