लेखक की कलम से

मौन में भी तुम …

मैं ‘तुम्हें’ मौन में भी महसूस करती

शब्दों की आकृति से सृष्टि करती

अनुभूत करती

सर्वस्व…

‘तुम’ मन के उच्श्वास में हो

मेरे सम्मुख सदैव

यही तो हो

पार्थिवता और अपाथिर्वता के

मिलनकाल पर उपस्थित हो

अभिव्यक्ति दे..

उपस्थिति पक्की करने की चेष्टा करती हूं!

उसकी अनिवार्यता है

‘वह’ मुझमें, मेरे जीवन में है….

अनवरत ‘उसकी’ पनाह में खुद को

महफूज महसूस करती!

उसे अनुभव कर सकते हो

करके, तो देखो!

उसका साथ व्यक्तित्व को गंभीर

बनाता, मजबूती देता

इस भाव सह पत्ते की तरह उड़ने से

ही नहीं डरोगे!

उसके साथ ही उड़ोगे

समय शनैःशनैः दबे पैर निकल रहा

ज्ञात नहीं ना तुम्हें!!

वैसे ही तुम उसी की संगति में हो!

मैं महसूस कर रही

‘उसे’

प्रतिपल “इस पार”…

जिसे मिलने की कामना

अजस्य लोग “उस पार”

करते …

हर पार्थिव में हो

‘तुम’ ही तो!

मुझमें अनेक भाव को समेटे हो

क्या नाम दूं इसे… ?

जीवन, प्रेम, भक्ति, मृत्यु

या फिर उसके बाद का नवजीवन!

‘तुम’ इस पार्थिव में

“इहलोक” से “परलोक”

तक भिन्न आकृति में

साथ ही रहोगे

मुझे अब चिंता नहीं!

समर्पण, मिलन, छुअन या बिछड़न की…

कदापि चिंता नहीं …

मौन में भी ‘तुम’ ही तो हो!

मुझ में भी ‘तुम’ ही तो हो!

आज, कल, प्रतिपल

‘तुम’ हो

सर्वत्र…..

मौन से मुखर तक

मैंने महसूस किया

‘तुम्हें’ सिर्फ ‘तुम्हें’…..

 

©अल्पना सिंह, शिक्षिका कोलकाता

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