भाषा ….
सभ्यता के उद्गम से उपजी
अनगिनत भाषाओं के मध्य
एक ही स्वरूप है
संसार में प्रेम की भाषा का …
उन्नति के अवदानों के बीच
आज भी
कातर मुद्रा में बिलख रही है
जगत में निर्मम भूख की भाषा …
प्रगति के चरम उत्कर्ष के दरम्यान
मुंह बाएं किये खड़ी नज़र आती है
लोक में अनंत दुःख की भाषा ….
विकास की सहयात्रा से
सदैव उद्विग्न प्रतीत होती रही है
जग में तृष्णा की भाषा …
तरक्क़ी के चकाचोंध की मांझ में
इस जहां में अपना अस्तित्व
तलाश करती नज़र आती है
सघन मौन की भाषा ….
भुवन के इस छोड़ से लेकर
उस छोड़ तक
सुदूर किसी भी वनांचल के भीतर
प्राथमिकताओं की मार से सिसक रही है
संवाद और विज्ञान की भाषा ….
कोलाहल के व्यापक प्रतिरोध के मध्य
रंच मात्र सुक़ून पा लेने की
जद्दोजहद में संलग्न खड़ी है आज
अखिल विश्व के
अबोध निद्रा की भाषा ….
रंग -रूप ,आकर -प्रकार
रहन -सहन ,खान -पान , आचार – विचार
किस भी समुदाय का चाहे जैसा भी हो
मगर इस भूमण्डल पर एक ही तरह के उद्गार व्यक्त करती है आज भी
वेदना एवं आनंद की भाषा …..
इसीलिए पहले आओ बन्धु बचा लें
इस फ़ानी दुनिया में स्पर्श की भाषा !
फिर बचाएं
मन के तरंगों की भाषा !
और फिर बचा ली जाए
संवेदनाओं एवं सद्भावनाओं की भाषा !
इसी तरह हम सब मिलकर
बचा पाएं शायद !
मनुष्यता की राह पर चलकर
राष्ट्र के सम्मान एवं गौरव की भाषा …
©अनु चक्रवर्ती, बिलासपुर, छत्तीसगढ़