लेखक की कलम से

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय …

 (भाग 3 )

पूर्णबंदी का तीसरा चरण .. हम हो गए लापरवाह और परिणाम अति भयावह ..कोरोना का कहर जारी है .. लोगों ने जिंदगी को तमाशा बना लिया है ..हमारे कोरोना वारियर्स अपनी जान की चिंता न कर जुटे हुए हैं हमारी रक्षा करने में और एक हम हैं जिन्हें घर ‘ कैदखाना ‘ लग रहा है। हर दिन बाहर निकलने के बहाने खोज रहे हैं। दो गज की दूरी, मास्क लगाना, सब मजाक लग रहा है। मेंरा दायरा सिर्फ सीमित है चारदीवारी के अंदर ..क्योंकि मुझे अपने साथ जुडे हुए हर रिश्ते की परवाह है। मैं भी उन लम्हों को मिस कर रही हूं। तैयार होकर हर दिन कॉलेज जाने निकलना और उस टाईम में पडोसिनों का मेंरी तारीफ करना ..कितनी स़ुंदर साड़ी पहनी है ?? कहां से लीं ? तुम्हारे तो जलवे हैं ..हर दिन एक से एक पहनना और घूमना .. पड़ोसियों के इस तारीफ में कहीं न कहीं “मेंरी साड़ी से तेरी साड़ी ज्यादा सफेद वाली “..फीलिंग्स को मैं समझती थी पर मैं भी इठलाते हुए जवाब देती थी ..बाहर की खूबसूरती दिखती है ये सोचो सुबह से मुझे सब जल्दी जल्दी काम करके बाहर जाना पड़ता है ..फिर आकर मुझे काम करना पड़ता है ये तुम्हें नहीं दिखता ?? सच्चाई तो यही है हर कामकाजी महिला के जीवन में काम का बोझ दोहरा होता है। पर शुक्र है उस उपर वाले का उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी हम पर काम का बोझ दोहरा ही रखा। नौकरी बंद तो घर की बाई वाली नौकरी शुरू ..कुल मिलाकर काम दोहरा ही रहा …

घर में बिल्कुल सादगीपूर्ण माहौल में समय बिताने का संकल्प ली थी फेसबुक लाईव और इंटरव्यू के दौर ने मुझे कहीं का न छोड़ा। दो महीने से अपनी पहचान छिपाते जीने रहने के सुख पर मानो ग्रहण लग गया और अपने ब्यूटी पार्लर प्रशिक्षण के नुस्खों पर हाथ आजमाना पड़ा। लगे हाथ पतिदेव की भी हेयर कटिंग कर दी। ऐसा लगा लाईव बुलाने वाले शायद हमें हमारे वास्तविक रुप में देखना चाहते हैं ? पर उन्हें नहीं मालूम कि नारी को तो भगवान भी नहीं समझ पाएं हैं तो ये बंदे क्या हैं ?? (ये उक्ति..यह जुमला तथाकथित मठाधीशों के द्वारा मैं बचपन से सुनती आ रही थी ..आज याद आ गई और मैंने यहां प्रयोग कर दिया जो.. शायद सटीक भी है) इस तरह मैं लाईव आने के लिए तैयार हो गई। अगर मैं चाहूं कि मैं जैसी हूं वैसी ही रहूं तो ‘लोग ‘ रहने नहीं देंगे ?? लॉकडाउन में फेसबुक लाईव का यह फार्मूला उसी सिध्दांत पर आधारित है।

मुझे भी कबीरदास जी की वो पंक्तियां याद आ गई कि ” रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।

हीरा जनम अमोल था, कौडी बदला जाय। ” इसतरह अपने जन्म को कौडी न बनने दिया जाय यही सोचकर फेसबुक लाईव आने लगी।

अब इन सबके साथ काम बढ़ गया और काम की अधिकता के कारण काम का बंटवारा हो गया। कुछ राहत मिली पर मन में बचपन से पिलाए गए वो घूंटी ..वह संस्कार ..जो यह सब मानने को तैयार ही नहीं था कि पति परमेंश्वर से काम करवाया जा सकता है ?? ईश्वर को हाजिर नाजिर जानकर पति.. परमेंश्वर के ओहदे से उतरकर मित्र ..दोस्त ..सहयात्री बन चुके हैं और साथ में मेंरे ‘ सहकर्मी ‘ बन घरेलू काम निपटा रहे हैं। ‘घर में बीबी और बाहर करोना ‘ ऐसे हजारों मैसेज उनके वाट्सएप पर आ रहे हैं। और हम दोनों उन मैसेजों को पढ़ खिलखिला रहे हैं ….

 

           ©डॉ. सुनीता मिश्रा, बिलासपुर, छत्तीसगढ़                                       

 क्रमशः …

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