पतझड़ …
पतझड़ ,
कुछ कराता हैं अहसास,
खुद से खुद के मिलन का,
छोड़ जाते है जहाँ सब अपने,
पथ रहता सुनसान राहो सा,
जब शांत हो जाती है राहे,
दूर हो दुःख में सम्हाले जो बाँहे,
तब क्या टूट जाना है,
केवल अश्रु बहाना हैं,
बताती हैं निज प्रकृति तब,
ले कुछ मौन का सहारा,
बस तू अन्तःभ्रमण कर,
देख जरा सुन वह संदेश,
प्रकृति उर में रही जो भेज,
शायद मिल जाये वो राह,
जिस पर तुझे बस चलना है,
शांत भाव से,कुछ नव ऊर्जा से,
कुछ नवपथ पर चलना है,
हर पतझड़ के बाद ही तो,
नवपल्लव भी आते हैं,,
शूलों भरे पथ ही तो,
कुछ नया सिखाते है,
फिर सहर्ष मन से,
कर आत्मसमर्पण,
कुछ आत्मविश्लेषण करना है,
हर पतझड़ से आज हमे फिर,
कुछ नव पथ को भी गढ़ना हैं,
है यही परीक्षा वीरो की,
बस वीरता न तजना है,
देती प्रकृति नव अस्त्र शस्त्र,
फिर हर पतझड़ ही अपना है,
तो तैयार फिर पतझड़ में ही,
लेने भावी चुनौतियों को,
‘एकला चलो रे’,बस धारण कर ही,
तोड़ने हर विसंगतियों को,
है हम सब भी एक योद्धा,
बस हर पल तैयार रहे,
पतझड़ हो या रिमझिम सावन,
अंतस यात्रा सदा करे।।
©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी