लेखक की कलम से

लागत करेजवा में चोट : रसूलन बाई

 

इतिहास की नज़र बनारस को एक खूबसूरत शहर के रूप में देखती है। इतिहास का विद्यार्थी इस शहर से खासा लगाव रखता है। वजह ये कि जब हम पहले पहल इतिहास के हर्फ़ों को संजीदगी से थामते हैं तो बनारस शहर की बसावट में निरंतरता हमें चमत्कृत करती है। 600 ईसा पूर्व से लगातार आबाद रहना बनारस शहर को खास बनाता है। इस शहर की गलियों में जर्रे-जर्रे से आप इतिहास से रूबरू होते चलते हैं। एक दफ़े यूँ ही बनारस की गलियों को टोहते हुए एक ठुमरी की याद ताजा हो गई जिसे गुनगुनाते हुए हम रसूलन बाई तक जा पहुँचे।

ठुमरी के बोल हैं : ‘फुलगेंदवा न मारो लागत करेजवा में चोट’

 

अजी फुल गेन्दवा न मारो, न मारो

लगत करेजवा में चोट

दूँगी मैं दुहाई

काहे चतुर बनत

ठिठोरी करत हरजाई

फूल गेंदवा न मारो..

 

हे दहका हुआ ये अंगारा, अंगारा

दहका हुआ ये अंगारा

जो गेन्दवा कहलाये है

अजी तन पर जहाँ गिरे पापी

वहीं दाग़ पड़ जाये है

अंग-अंग मोरा पीर करे

और करके कहे

फुल गेन्दवा न मारो..

 

इतिहास की ही तरह साजिन्दों की बात चले या फिर ठुमरी-कजरी का जिक्र हो बनारस एक ख़ास मक़ाम रखता है। रसूलन बाई का ताल्लुक भी बनारस से है। मिर्जापुर में जन्मी (1902) रसूलन बाई को मान-सम्मान रसूख बनारस ने दिया। उनकी पहचान बनारस घराने की पूर्वी अंग की गायिकाओं में है। फुलगेंदवा उनकी चर्चित ठुमरी है। ख़ूब सुनी और गाई जाती है । हिंदी फिल्मों (दूज का चाँद,1964) में भी शामिल हुई। कहते है कान पर हाथ रख तान खींचने की शुरआत रसूलन बाई ने ही की। आज भी ये अदा शास्त्रीय गायन का अभिन्न हिस्सा है।

 

रसूलन बाई के हिस्से में कुछ ही रौशन दिन आये। जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने उदासी , मायूसी और मुफलिसी में गुजरा। सन 1947 में कोठे सरकारी निर्देश पर प्रतिबंधित हो गए। इसका खामियाजा तवायफों को उठाना पड़ा। समाजिक दबाव तो उन पर हमेशा से था । इस सरकारी कदम से आर्थिक समस्याएं भी उठ खड़ी हुई। सन 1948 से आल इंडिया रेडियो ने गाने बजाने वालों की रिकॉर्डिंग सख्त कर दी। स्त्रियों के लिए विवाहिता का प्रमाणपत्र देना अनिवार्य कर दिया गया। इन सब तब्दीलियों के चलतन रसूलन बाई ने मुजरा करना और दरबारी गायन बंद कर दिया। बनारसी साड़ी के व्यापारी सुलेमान से ब्याह कर गृहस्थी बसा ली। कुछ वक्त बाद उनके पति बेटे के साथ पाकिस्तान जा बसे और रसूलन बाई अहमदाबाद चली गईं। सन 1969 में गुजरात में हिन्दू मुस्लिम दंगे के दौरान फैली आगजनी में रसूलन बाई का घर स्वाहा हो गया। सन 1957 में संगीत नाटक अकादमी से नवाजी गयी ठुमरी की इस रसूखदार गायिका की मृत्यु 72 वर्ष (1979) की वय में हुई।

स्रोत: शीला धर, रागा एन जोश,ओरियंट ब्लैकस्वान.

 

©नीलिमा पांडेय, लखनऊ

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