लेखक की कलम से

आवारगी जिनकी फितरत में …

वक्त आ गया

उन्हें दर्द से रूबरू करवाते हैं

चलो आज उन्हें

उनकी खामियां गिनवाते हैं

 

अजनबी बनकर

मिले थे जिंदगी के सफर में

हम सफ़र की

जुदाई का अहसास दिलाते हैं

 

ख़ुशी इतनी थी

कि छुपाये भी ना छुपा सके

देखना ये है

डर मौत का कहां तक छुपाते हैं

 

मंजर जब ये देखा

तो बड़ा सुकून मिला मुझे

सुना है आजकल

वो अपने साये से घबराते हैं

 

आवारगी जिनकी

फितरत में बे – शुमार थी

महफिलों में

कहीं वो अब नजर नहीं आते हैं

 

मेरी मोहब्बत

जिन्हें कभी फरेब लगती थी

वो अब जिंदगी

के हर मोड़ पर फरेब खाते हैं

 

छोड़कर मुझे

कल तक खुश नज़र आ रहे थे

आज दर्द-ए-दिल

तन्हाई में अश्क छुपाते हैं

 

मयखाना तलाश

करने लगे वो लोग ‘ओजस’

साकी नहीं देती

तो जाम छीनकर पी जाते हैं

 

©राजेश राजावत, दतिया, मध्यप्रदेश          

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