डर से संवाद …
बेताबियों से इश्क़ हैं मुझें। बेफ़िक्री थोड़ा परेशान करती है मुझें, पर उम्मीदों की साँकल कभी नाउम्मीद नहीं होने देती मुझे ।बेशक़ यह अवलंबन या अपेक्षा थोड़े छोटे शब्द पड़ जाते हैं।।आवारा प्रश्नों क़े उत्तरों को मर्यादित अवधि में सीमा पार कराने के साथ शालीन प्रश्नों को शालीनता की पेहरन से स्वागत करने की ललक रहती है मुझमे।।एक सीमा तक सम्बंधो की डोर पकड़े रहने की जिद्द।। एक मर्यादित परिधि तक मनाने की पहल भी।
कोशिशें सदैव एक संतुलन तक।फ़िर मैं उन सभी बेफ़िकरियों को तिलांजलि दे देती हूँ।
उन्हें एक रेखा के अंदर मुझ तक पहुंचने की सख्त पाबन्दी होती है।। आत्मसम्मान पर कोई आँच नहीं फ़िर।
शब्दो की आवारगी नहीं भाती। कटाक्ष रूपी शब्द बाण नहीं करती। उकेरती हूँ उन् रेखाचित्रों को। अपनी वेदनाओं में। वेदना यह शब्द भी छोटा प्रतीत होता है।
आधार नहीं होता कोई लेखन का।विषय होते है।
अनुभव होते हैं।जिसका आधार सम्बंध होते हैं।
सम्बंधो के अनुभव ख़ुशी औऱ दुःख के माध्यम से शब्दों में परिवर्तित होते है।द्वेष, व्यंग्य प्रेम विरह फ़िर यही से सृजित होते है।
मैं इन सबसे मिल कर बनी हूँ।
जैसे सम्बंध वैसा सृजन। आधार जो जिस रूप मे स्वीकृत करेगा उसे उसी हिसाब से पिड़ा भी और ख़ुशी भी महसूस होगी।
पहले भी लिख चुकी हूँ।अनुभव लम्बी पारी खेलते हैं।
जीवन का हर अनुभव श्रेष्ठ हैं वज़ह हमे बहुत कुछ सीखा जाता है।
कुछ अनुभव प्रेरक, कुछ बेहद तकलीफ़देह।
खुशियां लिखी नह जाती , पता है क्यों?
वह माथे पर आँखो में मुस्कान में दिखती है।मुस्कुराता चेहरा उस उपवन भाँति हैं जिसके फूल मन मोह लेते हैं। खुशियाँ बांटी जाती है।समेटी नहीं जाती।
जोर से अट्टहास करके देखिए ख़ुद समझ जाएँगे। अब यह अट्हास भी आप तय करेंगे। अपने स्वभावानुसार..!!?
खुशियां देना सीखिए।स्वछ माहौल के साथ स्वच्छ साहित्य की भूमिका तैयार हो जाएगी।
प्रेम विरह का रूप है।जो वक्त वक्त पर उसे अपने आँसुओं से सींचता हैं।ताकि वह पनपता रहे हर ह्रदय में…!!
औऱ फिर प्रेम का आधार बन रचने लगता है अपना एक संसार।जिसे लोग चाव से ग्रहण कर पढ़ते हैं।
इश्क़ में नमक न हो तो सम्बंधो का आधार समाप्त हो जाता है।
बस वही बेताबियाँ, बेफ़िक्री ज़ेहन में आत्मसात कर सृजन करने लगती हूँ मै…!!
तो अनुभव मेरी जिंदगी के, मेरी वेदना, मेरी खुशियाँ के बेवजह आधार बन शामिल क्यों होते हैं लोग
सुनो हमख़याल मेरे ।रही बात मेरी तो बेहतरीन, पारदर्शी, औऱ सच्चे लोग मेरे इर्दगिर्द बिखरे है। अपने सम्पूर्ण प्रमाण के साथ। तुम जैसे बग़ैर पते के लोग सिर्फ़ छलनाओ के सारथी ।।जिन्हें किसी से मोह नहीं होता।अपनी ख़ुशी से ज़्यादा कुछ प्यारा नहीं होता।
पहली बार तुम्हे आधार बनाकर। लिखना दिल को सुकूँ दे रहा है।शायद दिल ज़ेहन तुम्हे मुक्त करने को राजी हो गए है।
मेरे आत्मसम्मान से ज्यादा कुछ ज़रूरी तो नहीं। तुम भी नहीं पता है अपनत्व दोनो तऱफ से ज़रूरी।मैं मना चुकी अब बारी तुम्हारे खरे पन की…!! बढ़ो तो दिल से स्वागत। वरना मेरी पसंदीदा पँक्तियाँ तुम बेहतर जानते हो।
सीधी बात no बकवास
©सुरेखा अग्रवाल, लखनऊ