लेखक की कलम से
मैं शरीर नहीं …
?मैं?
मैंने आज जो भी पाया
यूँ कहूँ जो मेरे पास है
ये मुझे पता है कि
कल मुझे सब खोना हैं।
जानती सब हूँ पर
छोडूं कैसे ये सब
रोना तो यही है
कि छोड़ा ही नहीं जाता।
रोज रोज नहाई मैं
मल मल धोया तन
ये भी काम न आएगा
ये मुझे पता है।
मुझे मालूम था कि ये
एक दिन खाक होना है
फिर भी लगी इसको दिखाने में
अपने को शरीर मानती रही।
सिर्फ ये शरीर मैं नहीं
आँखें खुली तो समय गया
समझ आया तो सब छूटने को
क्यों लगी रही ‘मंजु’ इन सब में।
‘मैं शरीर नही’
©डॉ मंजु सैनी, गाज़ियाबाद