जन-समुद्र…
कुछ लोक बिल्कुल एक से, रूप-रंग वाले
एक ही दिशा में
एक-दूसरे को पीछे छोड़ते हुए
एक दूसरे का मनोबल अनजाने में
मगर, तोड़ते हुए।
बढ़ रहे थे, न जाने किस ओर
कहां है? वह निर्दष्ट छोर
आगे की पीछे
ऊपर की नीचे संदेह जनक है।
न जाने अब प्रगति का क्या मानक है?
भीड़ में, कुछ अति उत्तम
कुछ मध्यम
कुछ अति निम्न है।
पर अधिकांश भ्रमित, शंकित, चकित लग रहे हैं।
कुछ कुचले जा रहे हैं।
कुछ कुचल रहे हैं।
कुछ मनचले उल्टी दिशा में कूच कर रहे हैं।
कुछ दिलजले चुपचाप अवाक हो रहे हैं।
सब के सब कहां भाग रहे हैं।
ये कैसा जन समुद्र है।
न समुद्र जैसी तेजस्वी ओज,
न ही कोई स्पंदन
जैसे टूट गया हो कोई मानवीय बंधन
घुटा हुआ सा असहाय क्रंदन।
@दोलन राय, औरंगाबाद, महाराष्ट्र
परिचय- मूल निवास अंबिकापुर, छत्तीसगढ़, मनोविज्ञान, जनसंपर्क और पत्रकारिता में स्नातक, राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कविताओं का प्रकाशन, आकाशवाणी से कविता पाठ, अब तक दो काव्य संग्रह का प्रकाशन।