लेखक की कलम से

कोलाहल क्यों है …

 

 

कोलाहल क्यों है चौराहे

क्या सजा है कोई बाजार ?

क्या बोली है आत्म सम्मान की

जो बेचा जा रहा है बाजार ??

 

शोर उठ रहे चारों ओर से

बोली लग रही है ईमान ।

देखो इसके खरीददार को

पहन रखें हैं खादी परिधान।।

 

कभी कभी तो खाखी को भी

बना लेते ये अपना गुलाम।

उगाही सहित अनैतिक कार्यों में

कर लेते संलिप्त श्रीमान।।

 

कोलाहल क्यों है चौराहे

क्या सजा है कोई बाजार ?

क्या बोली है आत्म सम्मान की

जो बेचा जा रहा है बाजार ??

 

 

कोलाहल है उस चौराहे

जहाँ छिड़ा चुनाव का तान।

कभी इस दल तो कभी उस दल

का छेड़ते हैं ये थोथा तान।।

 

कोलाहल है इसके मंडी में

जहाँ बिकते है इनके ईमान।

कभी बिकते ये पद के लालच

या कभी बिकते ये रुपयों के वजन जान।।

 

कोलाहल क्यों है चौराहे

क्या सजा है कोई बाजार ?

क्या बोली है आत्मसम्मान की

जो बेचा जा रहा है बाजार ??

 

कोलाहल है देश धर्म पर जिसकी

बोली बस छल ही जान।

अपने से अपनों का रिश्ता

दूर करता इसका छल महान।।

 

शोर मचा ये ठेकेदार करता

रहता छल प्रपंच का गान।

इसके इस प्रपंच के खेल में

फँस जाता आम जन का प्राण।।

 

कोलाहल क्यों है चौराहे

क्या सजा है कोई बाजार ?

क्या बोली है आत्म सम्मान की

जो बेचा जा रहा है बाजार ??

 

अब कोलाहल हो चौराहे

पहचान कर इस धूर्त का खेल।

सजग और सतर्क रहकर

पहचानें इसका हर एक खेल।।

 

पहचान कर इसके गंदे खेलों को

अब इसका करें खत्म खेल।

खदेड़ कर इसको बस

बंद करें अब इसका गंदा खेल।।।

 

©कमलेश झा, फरीदाबाद

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