परिभाषा प्रेम की …
प्रेम है दर्पण हृदय का
है प्रणय का प्रेम तर्पण
प्रेम श्रद्धा का सुमन है
स्वयं का करता समर्पण
प्रेम बाती प्रेम दीपक
ज्योति जीवन से मरण तक
प्रेम की सरिता प्रवाहित
डूब जाने से तरण तक
प्रेम अभिलाषा बढ़ाए
प्रेम आशाएं जगाए
प्रेम पीड़ा प्रेम सुख है
ये हंसाए और रुलाए.
प्राण की धड़कन यही है
गात का सौंदर्य सारा
अर्ध-नारीश्वर जगत का
ऊर्जा कीअजस्त्र धारा
प्रेम प्राणों की पिपासा
प्रेम का हर एक प्यासा
प्रेम अंतर की अभीप्सा
तृप्ति पाने की प्रतीक्षा
भीगता है आंसुओं से
प्रेम करुणा से भरा है
प्रेम है विद्रोह मन का
वह भला किससे डरा है
है परम ये शिव स्वरूपा
प्रेम जीता या न मरता
ये स्वयं-भू रूप ईश्वर
हृदय मे आनंद भरता
कृष्ण है इक प्रेम डोरी
जैसे चंदा औ चकोरी
प्रेम राधा प्रेम मीरा
प्रेम ज्यों वृषभानु छोरी
प्रेम है स्पर्शमणि सा
जिसे छू ले वही कुंदन
दुई को करता तिरोहित
सिर्फ़ बचता एक तन मन
प्रेम यात्रा उस जगत की
क्या तलब इसकी अमीरी
प्रेम मंज़िल ही नहीं है
प्रेम तो है बस फ़कीरी
प्रेम संप्रेषण हृदय का
प्रेम की है मौन भाषा
सार जीवन का यही है
ढाई आखर का जरा सा ….
©आशा जोशी, लातूर, महाराष्ट्र