लेखक की कलम से

प्रकृति के निकट ….

 

कितना सुकून मिलता है न

प्रकृति के निकट होना..?

ठीक वैसे, जैसे सारी परेशानियों का

गुम हो जाना, सिर रखते ही मां की गोद में।

‘गोद’ जैसे नर्म मुलायम बिछी हुई घांस,

आंचल सा छांव करता समग्र आकाश…

 

पत्तों की चरमराहट, चिड़ियों की चहचहाहट

जैसे कोई मनभावन लोरी बचपन की,

अपरिचित रास्तों पर चलते-चलते यूंही

पेड़ों की झूरमुठ पर छिप जाना,

मानों खेल कोई लड़कपन की…

 

हवा सर-सर बहती है और

तन-मन को छू जाती है,

बारिश यूं झमझम बरसती जाती

मंद-मंद मुस्काती जाती,

जैसे कोई दुल्हन कंगन खनकाती है…

 

चंद्रमा की शीतलता में

तारों का टिमटिमाना,

अंधेरों में भी आशाएं भरतीं

यूं जुगनूओं का जगमगाना,

जैसे मां बच्चे को कहती—

“न डर मेरे बच्चे, तूझे दूर बहुत है जाना”…

 

इस अंतर्मन के झरोखे से

प्रकृति रुपी जीवन झांकती है, तांकती है,

मानव का दिया हर घाव बार-बार टांकती है।

जैसे मकड़ी का जाला ,

बिखर जाने पर फिर से बुनना,

न थकना, न हारना,

जैसे नवजीवन का भोर आना…

 

महसूस किया है कभी..?

झरने की कल-कल करती,

निश्छल बहती जलधारा में खो जाना,

मिट्टी की सौंधी सी महक में भर जाना।

इंद्रधनुष के रंगों को चुराकर

ऐसे तितलियों का इतराना,

और उन रंगों को मुठ्ठी में

कैद करने की चाह लिए

तितलियों के पीछे भागना…

 

इस जीवन चक्र में नयी पीढ़ी के बीज बोना।

अंतर्मन से प्रकृति की ओर खुलता

बस एक झरोखा बनाना,

मां की गोद से उतर कर

प्रकृति की गोद में लीन होना,

कितना सुकून मिलता है न

प्रकृति के निकटतम होना…?

 

 

©वर्षा महानन्दा, बरगढ़, ओडिशा           

Back to top button