लेखक की कलम से

खौफ़ …

मैं अंधेरों से नहीं डरती मुझे दिन के उजाले बहुत डराते है, कुछ भयावह आँखें मुझे घुरती है मेरे एक-एक अंग से मानों कोई खास नूर छलकता हो और उसकी दरिंदगी भरी नजरों को जैसे चक्काचौंध कर देता हो। नज़रों से होते बलात्कार को सहना बदतर होता है।

कहीं आते-जाते बस या ट्रेन में  चढ़ते-उतरते एक अजीब सी डरावनी छुअन तप्त अँगीठी सी जला जाती है। सीटी बजाकर, आँखें मारकर मेरे वजूद को कितना हल्का आंक लेते है। तो कभी  दुपट्टा खिंचकर तार-तार करते खुद के संस्कारों को लज्जित करते है।

जीती जागती जीवंत हूँ खिलौना या चीज़ समझकर खेलने वालों की नीयत से डर लगता है। अब तो साफ़ दिल इंसान को भी ये दिल में छुपा डर वहशी के कठहरे में खड़ा कर देता है। नहीं रहा भरोसा मर्द जात के वजूद पर, कहीं विरानियों में, संकरी गलियों में या लिफ्ट के अकेलेपन में मानों खौफ़ खड़ा दिखता है।

ओर कहाँ महफ़ूज़ हूँ खुद के ही घर में अपने ही कभी-कभी अपनेपन का अपमान करते है भरे-पूरे परिवार में भी कभी कोई गंदी नीयत से छूकर बदन मेरा मेला करता है। शर्म आती है मुझे गीध सी नज़रों का सामना करते। क्यूँ हैवानों की नज़रों में साँप लौटते है एक स्त्री तन को देखकर।

कोई बुत नहीं जीती जागती इंसान हूँ

कितनी सकूचाऊँ, कितनी सिमटूँ, कितना सहजू अपने तन को ? क्या कुछ खास है मुझमें ? जैसी तुम्हारी माँ है, बहन है, बेटी है, भाभी है बस वैसी ही तो हूँ। पर हाँ शायद किसी ओर की बेटी हूँ तो सब समझ रहे है अपना अधिकार यूँ फ़टी आँखों से घूरकर नज़रों से बलात्कार करने का।

कुछ तो शर्म के दायरे में सीमित रहो क्यूँ मेरी नज़रों में समस्त मर्द जात को गिरा रहे हो, क्यूँ एक नर्म ओर सादगी सभर लहजे से नहीं निहार सकते, कुछ अंग का ही तो फ़र्क है तुम में ओर मुझमें वो भी कुदरत ने तुम जेसे वहशीओं को जन्म देने ओर पालने पोषने हेतु किया है।

क्यूँ वासनासभर द्रष्टि से इस पाक तन को गंदा करते हो, किस मुँह से नज़रे मिला पाते हो एसी हरकत के बाद खुद ही के वजूद से। सदियों से चली आ रही मानसिकता का खंडन कब होगा कब तक लड़कीयों को अपने सन्मान के लिए तरसना होगा ?

इज्जत ना दे सको ना सही बस रहम करो नारी को नारी समझो कोई मांस का टुकड़ा नहीं।

क्यूँ कुछ मर्दों को मैं काया नहीं माया लगती हूँ आँखों को उनके हसीन ख़्वाबों का जहाँ लगती हूँ। काँच सी मेरी परत के नीचे सीने में दबे मांस को लालायित सी नज़रों से ही नौंच-नौंच कर खिंच निकालने में माहिर मर्दानगी की नज़रों में शर्म की हल्की टशर भी नहीं दिखती। तकती ही रहती है जब तक ओझल ना हो। दूध पिलाती मासूम माँ के साड़ी के पल्लू का हल्के से हटने पर टंग जाती है नज़रें कमनीय कमर पर क्यूँ उतर आते है औकात पर।

क्यूँ नज़रें उस प्यारे नज़ारें को प्यार से देखती नहीं। महज़ गोश्त नहीं मैं मानस चित्र में मेरी छवि को एक ही रुप में ढ़ाल कर रखा है। रौंदने की मौकापरस्ती ढूँढते दरिंदों की अपने घर की इज्जत कैसे सलामत साँसे लेती होंगी।

अन्जाने में ब्लाउज से झाँकती स्ट्रीप खिंचती है एसे उस नज़रों को जैसे फ्लौरासेंट रंगीनियों से चौंधिया जाती है आँखें। अरे भैया महज़ आंतरिक वस्त्र ही तो है। पाँच साल की बच्ची का बचपन छीन लिया फ्राक पहनाने की उम्र में नखशिख सी लदे बिलखती है। ना समझ को कैसे समझाऊँ आसपास घूमते भेड़िये के भेष में रहिशों की नज़रों से कैसे बचाऊँ। डर लगता है अंधेरों में दो कदम की दूरी भी अकेले तय करने में। सहज सी नज़रें भी साँप सी लगती है। जैसे आग लगने पर सूखे के साथ हरियाली भी जल जाती है वैसे शराफ़त भी गुनाहगार के कठहरे में खड़ी लगती है। “किस पर भरोसा करें”

तुम्हारे चरित्र निर्माण की सीढ़ी एक स्त्री है, हर मर्यादा से अवगत करवाने वाली को हर मर्यादा तोड़ कर रौंगटे खड़े कर देने वाली वहशियत से रौंद देते हो। जैसे कोई मच्छर मसलता है बेदर्दी से।

राम ना बन सको ना सही रावण सी सोच  से खुद को रावण प्रस्थापित मत करो।

तुम्हारी वहशियत सीमा लाँघ रही है।

स्त्री बारिश की बूँद सी है सहज लो जीवन सँवार देगी। कद्र नहीं करोगे तो वो वक्त दूर नहीं रौद्र रुप चंडी का लेकर कहर ढ़ाएगी।

स्त्री रहस्यमय है इनसे डरो ये सब जानती है तुम्हारी बिछाई जाल के बारे में। हर नज़र हर चाल पहचानती है। बस चुप है कहीं तुम्हारी महज़ साफ़ सुथरी दिखने वाली शख़्सीयत नंगी होते बिखर ना जाए समाज के परिवार की चौपाल पर। बस इसीलिए मौन हूँ मुझे चुप ही रहने दो नहीं खोलनी लफ़्ज़ों की गठरी।।

अभी तो सिर्फ़ लब खुले है जुबाँ मुखर हुई तो शब्दों की आँधी में ढ़ह जाएगी आधी से ज़्यादा मर्दाना बस्ती।

 

©भावना जे. ठाकर

Back to top button