लेखक की कलम से
स्वागतम् वसंत …
गंध कैसी ले चली पवन
हो गए तृषायुक्त तन-मन,
विकल करता ऋतु राज वसंत
मदिर सर्वत्र विटप-कानन,
इस तरह बदल गया कण-कण,
जगत का ज्यों लौटा यौवन
लगे है ज्वाल पिंड हर स्नायु
आज फिर लघु लागे है आयु
प्रतीक्षा अंतहीन किसकी
आंख क्यों बार बार फड़की
उठा है तन मे कैसा ज्वार
बज उठे सभी देह के तार.
तृप्ति स्वप्निल हो गई मुई
उम्र बासंती आज हुई
वंचना देता सदा वसंत.
दुल्हन बैठी है छुई मुई
प्रकृति का अद्भुत कामाशर
तप्त है तन,मन, चक्षु,अधर
जाग उट्ठी मन की आशा
देह जा बैठी रोम शिखर.
©आशा जोशी, लातूर, महाराष्ट्र