लेखक की कलम से

स्त्री और अथर्ववेद…

वेद- त्रयी से इतर अथर्ववेद का रुख करने पर भी हमें निराशा ही हाथ लगती हैI अथर्ववेद उत्तर-वैदिक साहित्य का अभिन्न अंग है। अवैदिक संस्कृतियों की प्रधानता इसे शेष साहित्य से अलग करती है। यही वजह है कि प्रारम्भ में इसे ‘वेद’ का दर्जा नहीं दिया गया था। अथर्ववेद जादू-टोनो का विस्तार से उल्लेख करता है।

बीमारियों से निजात पाने के टोनो-टोटकों की इसमें भरमार है। यह जीवन के लौकिक तत्वों पर अधिक विचार करता है। अवैदिक तत्वों की प्रधानता और लौकिक जीवन से जुड़ाव इसे विशिष्ट बनाते हैं। इनके माधयम से हम अवैदिक संस्कृति के समाज को समझ सकते हैं,उसे विश्लेषित कर सकते हैं।

अथर्वेद में समाज के महत्वपूर्ण घटक ‘स्त्री’ को ढूँढने पर हम ऐसे अनेक टोनो-टोटकों से दो -चार होते हैं जो विशुद्ध रूप से स्त्री समाज पर केंद्रित हैं।कुल मिलाकर ऐसे 34 सन्दर्भ हमें मिलते हैं जिनके माध्यम से अवैदिक संस्कृति में स्त्री की स्थिति-प्रस्थिति को समझने का प्रयास किया जा सकता है। ये सन्दर्भ हमें  उस समय दुविधा में डालते हैं जब हम अवैदिक संस्कृति की स्त्री को वैदिक संस्कृति की स्त्री के साथ ताल-मेल बिठाते हुए पाते हैं। दोनों की मूलभूत स्थित में कोई गहरा अंतर नहीं दिखता।

स्त्री से जुड़े अथर्ववेद के सन्दर्भ मुख्यतः मातृत्व, स्त्री की प्रजनन क्षमता, पुत्र संतान की प्राप्ति, सुरक्षित गर्भ, गर्भपात, विरोधियों तथा शत्रुओं को संतान सुख से वंचित करने की अभिलाषा रखते हैं। ऋचाओं का दूसरा हिस्सा विवाह और योग्य पति के इर्द- गिर्द घूमता है।कुछ अन्य ऋचायें स्त्री-पुरुष संसर्ग का उल्लेख करती हैं, साथ ही ऐसी ऋचाएं भी हैं जिनमें प्रतिस्पर्धी-स्त्री (सौतन) के प्रति ईर्ष्या का भाव प्रबल है।

ये ऋचायें स्त्री की कोई नई तस्वीर हमारे सामने उदघाटित नहीं करती हैं। यद्यपि अथर्ववेद अवैदिक संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली संहिता मानी जाती है तथापि यहाँ भी स्त्रियां परिवार और शरीर के उसी दायरे में कैद हैं जो  वैदिक संस्कृति एवं अन्य पितृसत्तात्मक समाजों की विशिष्टता है।

©नीलिमा पांडे, लखनऊ

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