लेखक की कलम से

प्रकृति सुषमा …

नहीं कहीं है छाह निराली,

नहीं कहीं है बद्री प्यारी,

नहीं कहीं है लहलहाते खेत,

नहीं कहीं है समुद्रीय रेत,

नहीं कहीं है उपवन आकर्षक,

नहीं कहीं है अरण्य का सुख,

नहीं कहीं है क्यारियों की कतार,

नहीं कहीं है वटों की बहार,

नहीं कहीं है झुरमुट की झंकार,

नहीं कहीं है कोमल पात,

नहीं कहीं है मधुर विलाप,

नही कहीं है कोयल का साथ,

नहीं कहीं है पपिहो की बात,

 

नहीं आते वो साइबेरियन पक्षी,

नहीं मिलता उनको सुख-मस्ती,

नहीं मिलती उनको प्राकृतिक-शांति,

छूटे हमसे वो “पथिक-अनुरागी”,

 

नहीं बचा वो घना सा जंगल,

जिनमें बसता था जीवन अनुपम,

शेर,बाघ,भालू हाय!

गिलहरी,साँप,गिद्ध खूब शोर मचाए,

नहीं बची वो कहानी पुरानी,

जो कर जाती, रोमांचित भारी,

बच्चों को भाती अद्भुत पटकथा न्यारी,

 

नहीं दृश्यगम्य होता

वो पहाड़ों का रहस्य!

हिमाच्छादित सौन्दर्य हृदयस्थ!!

सूर्य के रक्तिम किरणों से अरूणाचल होना!

संध्या-सुंदरी का चुपके से उतरना!!

तारकों के मध्य वो शिश का होना!

बादलो का कुछ पलों में क्षय होना!

 

नहीं सुनते वो प्रातः मुर्गो की पुकार,

कोयल,पपीहे व कबूतर की पाँत!

नहीं कर्णों में पड़ते वो पत्तों का शोर,

वो उन्मुक्त बहते झरनों में लहरों के होड़,

वो नदियों में कूदते बच्चों का मौज,

समुद्रीय रातों में रेतों का दौड़,

वो वृक्षों में चिड़ियों के चहकने का शौक!!

 

हम तो भूलें शाश्वत सत्य धरा की

प्रकृति जननी,जन्मधात्री हमारी,

हमें उन्हें देना है यथोचित सम्मान!

रक्षा में उसके न्योछावर करना सर्वस्व…

जब तक वो हैं!

हम हैं!

है यह अकाट्य सत्य !

उसकी रक्षा में करें प्राण तक कुर्बान!

प्राणवान बनाए कण-कण को!

पाएँ प्रकृति सुषमा सम्मान…..

 

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                            

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