लेखक की कलम से

आज इंसान को इंसान से भय है …

ये ज़िंदगी सुख ओर दुःख से भरा समुन्दर है तैरना हमारा काम है

किनारा होगा, होना ही चाहिए जरूर मिलेगा।

ये खामोश मंज़र, डरावने लम्हें, भयभीत हदय

किसी भी चीज को छूने से पहले कँपकपाती ऊँगलियाँ, अन्जानी चीज़ ना देखी ना सुनी, मृत्यु के भेष में छुपी घात लगाए बैठी है।

कब, कहाँ, किस जगह से अद्रश्य सी हमारे अंदर बस जाए ये खौफ़नाक माहौल, डर, शंका, अनिश्चितकाल का घरवास, अखबार, टीवी, सोशल मीडिया पर घूमते सच्चे-झूठे मृत्यु आंक के मजमे,

बंद दरवाजे, सूनसान रास्ते, अकेलापन ओर अज्ञात भय से आहत मन।

काम बंद, धंधे चोपट, कमाई शून्य,

चिंता, चर्चे, भूख भीषण महामारी ये सब कब तक ? सवाल सबके मन में पर जवाब कहीं नहीं।

एक समय सतयुग का था जब इंसान को राक्षसों से भय था आज इंसान को इंसान से भय है, एसे इस दौर के हम साक्षी है जिसे इतिहास दोहराएगा, पर खुशहाल समय भी नहीं टिकता तो ये दौर भी निकल जाएगा।

साथ मिलकर सामना करें, बन पड़े उतनी मदद करें, चाहे पहचान हो ना हो हैसियत हो जितनी सबको दें वापस दुनिया से मिले ना मिले रब से बदला जरूर मिलेगा।

निरंतर बहते वक्त के साये में खुद को ढूँढे, खाली समय में खुद को तराशे

साथ रहे सामने नहीं, तैरते रहें डरें नहीं, बहती हवाओं के खिलाफ़ लड़ना है अपने ही लिए ये जंग लड़कर अपनों के लिए जीना है, हमें समय को हराना है।

©भावना जे. ठाकर

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