लेखक की कलम से

मैं बसंत की बहार हूं …

पतझड़ की पाती नहीं,

मैं बसंत की बहार हूं।

 

स्वप्निल पंखों पर उड़ने वाली

रमणीक उपवन में खिलने वाली

पुष्पों की बौछार हूं।

 

अंग -अंग पुलकित यौवन से

अप्रतिम सौन्दर्य से सजी-धजी

रति का श्रृंगार हूं।

 

मकरंद माधुर्य से भरी-भरी

सिन्दूरी सुरभि से रंगी -रंगी

अधरों की रसधार हूं।

 

निर्मल, पावन, मादक सी

प्रेमी “प्रियतम” की मनभावन सी

मधुर प्रीत की झंकार हूं।

 

अधरों पर मधुर मुस्कान लिए

सुरीली वाणी की तान पर

नवगीतों की सितार हूं।

 

प्रणय प्रेम को सिंचित करती

हृदय उमंग को मुखरित करती

खुशियों की अंबार हूं

 

सुर, नर, मुनि के चित्त हर लेती

आकर्षण से विचलित कर देती

स्वर्ग लोक का संसार हूं।

 

मैं बसंत की बहार हूं

मैं बसंत की बहार हूं।

 

  ©आरीनिता पांचाल, कोटा, राजस्थान   

Back to top button