लेखक की कलम से

समय …

 

अगर मैं समय को छन्नी कहूँ

तो अतिश्योक्ति नहीं होगी ।

कैसे सब कुछ छान कर

हमें वो लौटा देता है

जो हमने सच  में पाया होता हैं

और ना जाने ऐसे कितने ही भ्रम

बारीक तारो से होते हुए रिसते हुए

कही विलीन हो जाते हैं

और हम फिर एक पल ठहर कर

सोचने लगते हैं अभी कुछ समय पहले

तक तो मेरे हाथ, मस्तिष्क और मन

इनके बोझ को मेहसूस कर पुलकित हो रहे थे।

तो फिर वो क्या था …..??

जिसका भार मैं अब तक महसूस कर रही थी

दिखावा, छल या भ्रम ….??

अपनी योग्यता, काबिलियत पर भी तो कभी

गर्वित हुआ करती थी …

आज समय के उतार चढ़ाव ने जांचने परखने का

एक मौका दिया..…

और मैंने उन लाखों करोड़ों की भीड़ का

खुदको एक हिस्सा ही माना

बहुत कुछ कर के भी ऐसा लग रहा है मानो

अभी तो बहुत चलना और सीखना बाकी है ।

कभी बहुत गुमान हुआ करता था जिन रिश्तों पर

उनका असल रूप देख कर सच बिल्कुल हतप्रभ नहीं हूं

शायद मुझसे ही उन्हें समझने और परखने में

कोई भूल हो गई थी शायद या कोई हिस्सा

मेरी नजर से छूट गया था

और मैंने उन्हें खुद से जुदा कर खुदको देखा नहीं कभी

पर अब सब कुछ स्पष्ट हैं बिल्कुल साफ पानी की तरह

और मैं समय का शुक्रिया करते हुए

आगे एक कदम बढ़ाना चाहती हूं

पीछे मुड़ कर कभी पीछे ना देखने का वादा करते हुए ।

 

 

    ©रूपल उपाध्याय, बडौदा, गुजरात   

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