लेखक की कलम से

मजदूर का घर …

 

घास के पूलों से बनी छत

टिन और थोड़े से फूस-फास ,लकड़ी के टूटे

पल्ले और बाँस

 

सड़े गले बोरे और पेड़ों की डालें

बदबू भरी लटकी हुईं पशुओं की खालें,

 

चारों ओर बँधी हुई इधर-उधर डोर

कांव-कांव कर रहे- कौवों का शोर

 

जो भी जहां से मिला वहां से लाकर

बना लिए अपने छोटे-छोटे घर

 

जिधर देखो उधर ही कूड़ाऔर करकट है

आदमी है ज़िन्दा मगर रहने को मरघट है

 

देखो!वहीं खेल रहे मासूम प्यारे

घाव खुजलाते कुपोषण के मारे

लूले, लंगड़े,रोगी हैं घर के दुलारे

 

पेशे से मजदूर निवासी मजबूर

ठठरी पसलियों से तोड़ रहे पत्थर

जीवित ही लोगों का कैसा ये मरघट?

 

लोग सारे वधिर हैं ,लोग सारे मूक

कोई बतलावे भला कहां हुई चूक ?

 

©आशा जोशी, लातूर, महाराष्ट्र

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