लेखक की कलम से

बेटी …

कौन कहता है बेटी पराई है

निकलती भोर की रश्मियों में

झाँकती और मुस्कुराकर

सुप्रभात नित्य बोलती है

आँगन में खिले फूलों की कली में

 स्नेह सी खिल जाती है

चिंता में कभी बैठी मैं गुमसुम

स्नेह हाथों से

माथ सिर दुलरा जाती है

उपवन में कोई चिड़ियाँ

आ चीं चीं पुकारे

सरगम उसकी आवाज़

में सुना जाती है

पहन नुपुर जब घूमीं

ठुम्मक ठुम्मक

आज भी पुरवाई सुना जाती है

झूमती मैं उसकी वाणी सुन

चंदन का टीका माथ लगा जाती है

कही भी नहीं गई मेरी लाड़ली

घर के हर कोने से एक ज्योति सी

रौशन हो जाती है

जब  तब  हरसिंगार सी मेरे मन

को सुवासित कर जाती है

नेह के वंदनवार चमके

मेरे द्वारे

हर त्योहार में ख़ुशी बन

दमकती है पल पल

आरती में ईश का प्रारूप बन

घर आँगन महकाती है

नहीं अस्तित्व इस घर का तेरे बिना

हर त्योहार में भीना भीना मुस्कुराती है

कभी मेरी आँखो में कभी

पापा के मुस्कुराहट

और कभी भाई भाभी की बातों में

मुस्कुराती है

बेटी तो घर की जान होती है …

©सवि शर्मा, देहरादून                   

Back to top button