लेखक की कलम से

दी अक्टूबर, 6 फिल्म से दुनिया पढ़ेगी अहिंसा का पाठ …

 

एकता परिषद की ओर से भूमिहीनों, शोषितों, दलितों और वंचितों के हित में किए गए संघर्षों पर केंद्रित फिल्म दी अक्टूबर, 6 उस भारत की तस्वीरों को साझा करती है जिसकी परवाह ना सत्ता धारियों को है और ना इस देश के मध्य श्रेणी के नागरिकों और मीडिया को ही है। फिल्म के जरिए यह बात भी सामने आती है कि कैसे नई शताब्दी में महात्मा गांधी से प्रेरित होकर उनके अहिंसा के सिद्धांतों के अनुरूप ही आम लोगों का संघर्ष जारी है। बापू के सपनों का भारत किस मोड़ पर खड़ा है। जल, जंगल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधन कैसे लोगों से छीना जा रहा है। सरकारों का रवैया क्या है और उनको झकझोरने के लिए राजगोपाल पीवी ने पदयात्रा को अहिंसक संघर्षों का उपकरण बनाकर अंतिम जनों को कैसे संगठित किया और उनकी आवाज को कैसे सत्ताधीशों तक पहुंचाया। हालांकि कुछ भी संपूर्ण नहीं होती उसी तरह यह फिल्म भी पूरी तरह से सम्पूर्ण नहीं है लेकिन वरुण ने यह बताने कि कोशिश जरूर की है कि अपने देश में गांधी के विचार न केवल ज़िंदा है बल्कि उसे व्यवहारिक रूप से इस्तेमाल करते हुए न्यायपूर्ण समाज कायम करने का संघर्ष आज भी जिंदा है।

हालांकि एकता परिषद के संघर्षों पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं। दी अक्टूबर, 6 फिल्म एकता परिषद के खासतौर से उस अंतिम संघर्ष पर केंद्रित है जब सरकार की बेरुखी से क्षुब्ध होकर 2018 में देश के 17 राज्यों के 25 हजार से अधिक सत्याग्रहियों ने आर-पार की लड़ाई के लिए अहिंसक आंदोलन छेड़ा था। इस संघर्ष में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और तत्कालीन कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी भाग लिया था और इन नेताओं ने एकता परिषद के संघर्ष को जायज बताते हुए उनकी मांगों के क्रियान्वयन का आश्वासन दिया था। फिल्म की शुरुआत एकता परिषद के उन महिला योद्धाओं की केरल से शुरू हुई यात्रा के दृश्यों से होती है, जिसमें खेतों में काम करने वाली महिलाओं को किसान का दर्जा देने की मांग की जाती है। फिल्म में शहरों और गांवों के युवाओं के साझे शिविरों के साथ ग्वालियर में 2018 को 2, 3, 4, 5 और 6 अक्टूबर तक एकता परिषद के प्रयासों से चले सत्याग्रह के समापन तक की अनेक घटनाओं को कैद किया गया है। फिल्म का समापन राजगोपाल पीवी के उस ऐलान के साथ होती है कि उनका आंदोलन जारी है और जारी रहेगा। उनका आंदोलन केवल ग्वालियर और आगरा तक सीमित नहीं रहेगा। अब यह आंदोलन देश के सभी राज्य, जिला, प्रखंड और गांव गांव तक में तब तक चलता रहेगा, जब तक हमारी मांगें पूरी नहीं होती।

पिछले दिनों इस फिल्म की ऑनलाइन ज़ूम पर स्क्रीनिंग की गई जिसे इस पर चर्चा करने वाले महत्वपूर्ण और विशेषज्ञों के साथ एकता परिषद के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने देखा। इस फिल्म का निर्माण वरुण ने अपने सहयोगियों अंकुश, सतीश राज आचार्य, संजय सवले, कुलदीप तिवारी, रोहित साही, प्रत्युष शर्मा और कृष्णानंद पाठक के सहयोग से किया है। वरुण ने स्वीकार किया कि फिल्म के निर्माण में रण सिंह, रमेश शर्मा और अनीस कुमार का अतुलनीय सहयोग मिला। वरुण का कहना है कि पहले वे एकता परिषद के सत्याग्रह के हरेक दृश्यों का केवल शूट कर रहे थे। फिल्म बनाने की बात सत्याग्रह के बाद मन में अाई। फिल्म की स्क्रीनिंग के तुरंत बाद एकता परिषद के संस्थापक राजगोपाल पीवी ने वरुण और उनकी टीम को बधाई देते हुए कहा कि फिल्म में एकता परिषद के बिसेक साल की गतिविधियों को बखूबी समेटा गया है। इस फिल्म को देखने के बाद अपने और विभिन्न आंदोलनों का आकलन और विश्लेषण करने का मौका मिला है। उन्होंने कहा कि मौजूदा कोराना की विपदा के दौर में जब लाखों गरीब लोग सड़कों पर अा गए तो देश के लोगों की और सरकारों की आंखें खुली और उन्हें अहसास हुआ कि इस देश के ज्यादातर लोग बदहाली की जिंदगी जी रहे हैं और वास्तव में उनके लिए अब तक कारगर कुछ किया ही नहीं गया है। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के 1929 के एक रिपोर्ट के हवाले से कहा कि उसमे कहा गया है कि गांव में स्वावलंबी जीवन जी रहे ग्रामीणों को क्यों परावलंबी जीवन जीने के रास्ते पर धकेला जा रहा है। लेकिन आजादी के बाद देश की सरकारें महात्मा गांधी के बताए रास्ते पर नहीं चली। हम विनाशकारी विकास के मोहरे बन गए। हमें गांवों की ओर बैक होना है और न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज बनाना है।

एकता परिषद के अनेक संघर्षों पर कई फिल्म बनाने वाले नितिन ने फिल्म की कुछ विशेषताओं को उजागर किया वहीं कुछ सलाह भी दी ताकि भविष्य में एक ओर बेहतर फिल्म बनाई जा सके। उन्होंने एकता परिषद के आर्काइव का जिक्र करते हुए कहा कि यह खुशी की बात है कि फिल्म का निर्माण युवाओं ने किया है। साथ ही इस फिल्म से दर्शकों को यह पता चलेगा कि गांधी जी के विचार क्या थे और पैदल चलने वाली सामान्य प्रक्रिया को कैसे एक अहिंसक आंदोलन का उपकरण बनाया गया। उन्होंने फिल्म को एक नायक विहीन फिल्म बताते हुए कहा कि बहुत बेहतर होता कि सत्याग्रह में शामिल होने वाले पच्चीस हजार लोगों के बीच की बहुत सी बातें होती। मसलन इनके बीच उभरते नेतृत्व और उनके सुख दुख की बातें, उनके जज्बे की कहानियां भी होती। उन्होंने फिल्म के शिल्प को पुराना बताते हुए कहा कि हमें नए नए प्रयोग करने चाहिए। उन्होंने कहा कि दर्शकों को यह जानने का मौका मिलेगा कि एकता परिषद ने कैसे हजारों लोगों के आंदोलन का बखूबी प्रबंध किया । फिल्म में सत्य का दर्शन कराया है लेकिन जो सवाल खड़े हुए हैं वे सब अनुत्तरित रह गए।

सहजों ने फिल्म की इस बात के लिए तारीफ की कि इसने एकता परिषद से जुड़ी महिलाओं के संघर्ष को समेटा है। एकता परिषद शुरू से महिलाओं को समानता की आवाज बुलंद करती रही है। साथ ही उनकी गतिविधियों में महिलाओं की अच्छी खासी भागीदारी रहती अाई है। एक अन्य विशेषज्ञ शिवानी ने कहा कि फिल्म यह बताती है कि जमीन का मुद्दा आज भी जीवित है। उन्होंने कहा कि एकता परिषद का आंदोलन केवल जमीन के मुद्दों से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि उनका आंदोलन एक वैकल्पिक जीवन पद्धति को अपनाने का भी है क्योंकि मौजूदा विकास कथा तो विनाश कारी है जिन पर अनेक सवाल खड़े हो रहे हैं। शिवानी ने कहा कि एकता परिषद के लोग महात्मा गांधी के विचारों का प्रचार नहीं करते बल्कि उनको जीते हैं। आखिर में एकता परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रन सिंह परमार ने नितिन जी की दी गई सलाहों से सहमति जताते हुए कहा कि फिल्म ने राजगोपाल जी के योगदानों की याद दिलाती है कि कैसे वे हमेशा से आदिवासियों, दलितों, शोषितों और वंचितों के साथ चलते आए हैं और उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इस कार्यक्रम का संचालन एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक रमेश शर्मा ने बखूबी किया।

 

 

    ©प्रसून लतांत     

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