लेखक की कलम से
दाग…
बस पर चढ़ा,
तो सभी की नज़रें मुझ पर टिक गई,
और टिकती भी क्यों न?
पहना हुआ था जो मैं एक चमचमाती हुई सफेद शर्ट,
एकदम नई-नई इसे निकाला था,
अच्छी तरह से प्रेस कर अपने उपर ड़ाला था।
पर था मुझे एक बात का ड़र,
कि कहीं लग न जाऐ कोई दाग,
और संभालते हुए अपने को मैंनें एक कोने में ड़ाला,
कुछ देर बाद मेरे बगल के परिचित सहयात्री ने पूछा.
वाह! नई शर्ट है क्या ?
मैनें कहा..
हाँ नई तो है पर ड़र लग रहा है
कहीं कोई दाग न लग जाए..
तभी टिकट-चेकर आया,
सभी ने टिकट दिखलाया…
परंतु पता नहीं क्यों…
उसकी नज़र मुझ पर नहीं पड़ पाई,
अपने को किस्मती समझ मैनें भी टिकट नहीं लिया,
मुफ्त में यात्रा का आनंद उठा लिया।
घर आकर शर्ट उतारी,
कहीं किसी प्रकार का दाग न पाकर,
खुशी दुगुनी हो आई,
तुरंत लगाई माँ को आवाज़,
सारी बात बताई
कैसे आज उसने नई शर्ट दाग लगने से बचाई..!!
©अनंत ज्ञान, हज़ारीबाग (झारखंड़)