जनतंत्र के जमूरे …
व्यंग्य
हमारे पड़ोस में रहनेवाले लटकन चाचा हाँफते-हाँफते आए . कल का अखबार हाथ में लिए हुए थे . लटकन चाचा एक दिन पुराना अखबार हमारे घर से ले जाते थे तथा दुसरे दिन पढ़कर लौटा देते थे. अर्थात् वो मंगलवार को सोमवार का अखबार माँगकर पढ़ते थे. इस तरह वो अखबार पर पैसे खर्च करने से बच जाते थे . खैर! आज माजरा कुछ अलग था .
आते-आते ही उन्होंने सवाल ठोक डाला – अच्छा बेटा ये बताओ जो बच्चा जन्मा नही है, उसका दखिला आई आई टी या आई आई एम मे हो सकता है ? उसका जन्म प्रमाण पत्र बन सकता है ? मैने कहा – नही .
‘अच्छा कोई स्वस्थ आदमी अगर डॉक्टर के पास जाए तो उसे डॉक्टर कोई दवा लिख सकता है ?’
‘नही चाचा नहीं . ‘
‘अच्छा ये बताओ कोई घटना जो अब तक घटी नही है, वो क्या घटित होने से पहले ही अखबार में छप सकती है ?’
‘असम्भव चाचा असम्भव अखबार है कोई ज्योतिष थोड़े ही है, जो भविष्यवाणी करेगा.’
अब लटकन चाचा थोड़ा सहज होते हुए बोले – ‘अच्छा तो ई भविष्यवाणी है’, मेरा धैर्य अब जबाब दे रहा था- मैने कहा चाचा पहेली मत बुझाईए, खुलकर बोलिए क्या हुआ है ?
कुछ नही बबुआ. एक ऐसे कॉलेज के बारे में पेपर मे छपा है, जो अभी तक खुला ही नहीं है पर सरकार ने उसे टॉप कॉलेज के लिस्ट मे स्थान दे दिया है. अरे चाचा आप क्यों परेशान हो रहे हैं, आपको कौन सी डिग्री लेनी है ? जिसे कॉलेज खोलना है और जो उसमे पढ़ेगा वो समझेगा, आपकी बला से. बस ये समझ लो अभिमन्यु की तरह यह कॉलेज जन्म पूर्व ही सर्व गुण सम्पन्न है. ये जनतंत्र है चाचा यहाँ कुछ भी असम्भव नहीं . वैसे एक आदर्श भारतीय नागरिक होने के नाते आप इस उपलब्धि पर गर्व कीजिए . गिनीज बुक में, लिम्का बुक मे हो सकता है इस कॉलेज का नाम दर्ज हो जाए . खुशियां मनाइए चाचा. नया कॉलेज खुल रहा है.
लेकिन चाचा आज मानने के मूड में नहीं थे, फिर उन्होंने अगला सवाल दाग डाला.
बबुआ नया कॉलेज खुलने से क्या होगा ? एक बहुत बड़े सॉफ्टवेयर कंपनी के मालिक का बयान आया है कि 80% भारतीय ग्रेजुएट नौकरी देने के लायक नहीं हैं .
“सही पकड़े हो चाचा अभी. अबकी बार एकदम सच बोल रहे हो. पुराने कॉलेज से जो निकल रहे है डिग्रीधारी, वे नौकरी के अयोग्य है, इसलिए सरकार नया कॉलेज खुलवाने की व्यवस्था कर रही है.
लेकिन बेटा मैं उनकी बात से इतेफाक नही रखता. अगर 80% छोरे नौकरी के लायक नहीं अर्थात् नालायक है तो बैंगलोर, हैदराबाद आदि शहरों में कहाँ के छोरे नौकरी कर रहे हैं ? मै कहता हूँ सारे के सारे भारतीय छोरे गूगल का सीईओ बनने की काबिलियत रखते हैं. जरा नज़र उठाकर देखो तो सही. गली-मुहल्ले में कुकरमुत्ते की तरह उग आए इंजीनियरिंग कॉलेज तक मे कैंपस हो जा रहा है. जब सारे छोरों का कैंपस सेलेक्शन हो जा रहा है तो फिर वो कैसे नालायक हुए ?
तमतमाते हुए लटकन चाचा ने फिर प्रश्न ठोक डाला .
अब मेरा धैर्य जबाब दे रहा था. पर चाचा की जिज्ञासा का समाधान भी जरूरी था .
मैंने कहा- चाचा सुनिए , कैंपस होता है, छोरे चुने जाते है, नौकरी पर लग जाते हैं, पर इनमें से कितने इन कंपनियों में टिक पाते हैं. साल दो साल बाद इन्हें निकल दिया जाता है या इतना अधिक काम लाद दिया जाता है कि वे खुद ही नौकरी छोड़ देते हैं. फिर इनकी रिक्तियों पर नये चेहरे लाए जाते है,
कम दाम में, यानी लो कास्ट लेबर . यह एक बहुत बड़ा गेम है चाचा. कॉलेज, कंपनी, कॉलेज के लोग तथा कंपनी के एच आर मिलकर इस गेम को चला रहे है सालों से . आगे भी चलता रहेगा, हायर एण्ड फायर का यह गेम . सब प्यादे हैं, इस गेम में, यहाँ राजा कोई नही है , लेकिन सब के सब भविष्य में राजा बनने का सपना देख जरूर रहे हैं . फलतः सबकी एक ही नीति है यहाँ- ‘नीचे काटो, ऊपर चाटो’ अर्थात् अपने मातहत को काटकर रख दो और अपने सीनियर को बटर लगाओ.
यह ‘मल्टीनेशनल’ का दांव-पेंच है चाचा, एक सौ तीस करोड़ लोगों को समझ नहीं आया तो आप कैसे समझोगे ? हम और आप यहाँ सिर्फ और सिर्फ जमूरा हैं – जमूरा .
©अभिजित दूबे, पटना