लेखक की कलम से

गंगा घाट …

 

युगों- युगों से यात्रा मेरी,

तेरे साथ- साथ चलती रही।

 

जन्मों -जन्मों से गुजर कर ,

तुम पर ही तो आ के थमती रही।

 

 जिंदगी के एक घाट से,

 मौत के,

 दूसरे घाट तक का सफर।

 

युगों- युगों से ना बदला है।

 ना बदलेगा ।

जन्मों- जन्मों का यह सफर।

 

 देखता हूँ……. तेरे घाट पर जीवन का अनूठा ही फन।

 

जीवन के ,

एक घाट पर रंगे सपने है।

दूसरे घाट पर खुद को,

 सफेद धुंध को ओढ़े हुए अपने हैं।

 

 कितना भी ऊंचा उठ जाएं ,

खुद को धरा पर ही पाते हैं।

 

 सब अपने -सब सपने ,

उस घाट पर रह जाते हैं।

 

 फिर इस घाट से,

 उस घाट का,

 सफर कब खत्म हो गया ।

 

पिछले घाट पर,

 छूटा सपनों का महल ।

अंतिम स्नान से ही धुल गया।

 

 रिश्ते -नाते , प्यार , कड़वाहट,

 यादें -बातें सब दिन ।

आग में हवन हो जाते हैं।

 

 दूसरे घाट पर,

 राख के ढेर के बादल उड़कर। गंगा तेरी ही गोद में शरण पाते हैं।

 

 तेरे ही प्रवाह में ,

प्रवाहित हो जाते हैं ।

 

फिर उसी से ,

नवजीवन का प्रवाह पाते हैं।

 

 युगों- युगों से तुम्हारे घाट ,

जन्मों-जन्मों के ,

जीवन मरण की ,

अमृत कथा सुनाते हैं।

©प्रीति शर्मा, सोलन हिमाचल प्रदेश

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