लेखक की कलम से

आत्मा की कचहरी

(लघुकथा )

मैंने कहा -“ वह मुक़दमा जीत गया ।”
उसने मेरी ओर व्यंग्यमयी नज़र से देखा और बोला -“ उसे जीतना ही था ।”
मैंने कारण पूछा ।
उसने कहा -“ जज भी उसका ,वकील भी उसके ।”
मैंने कहा -“मगर दो -चार सच्चे गवाह भी तो थे ।”
उसने फिर मेरी ओर देखा और मुस्कुराया ।मुझसे प्रश्न किया -“गवाह की क्या अहमियत ? वह भी आज के युग में ?”
मैंने पूछा -“ गवाहों ने कुछ तो कहा होगा ?”
उसने बताया -“ जज ने पहले ही एक -दो गवाहों को खरी -खोटी सुना दी थी ताकि वे उसके विरुद्ध कुछ न कह सकें ।”
मैंने फिर पूछा-“ दूसरे व्यक्ति ने अपना पक्ष रखा होगा ?”
उसने सिर हिलाया -“जज ने उसका पक्ष नहीं सुना ।”
मैंने प्रश्न किया -“ जज ने किसी को जवाब नहीं देना अपने निरपेक्ष होने का ?”
वह गुमसुम-सा बैठा रहा और चलते -चलते बोला -“आत्मा की कचहरी में जवाब देना होगा “

©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़

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