
ऋष्यश्रृंग…
विभाण्डक ऋषि ने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। वह योग द्वारा अपने वीर्य को उल्टी दिशा में प्रवाहित करने के लिए संकल्प-बद्ध थे। यह उन्हें अमर बना देने और प्रकृति के ऊपर शक्ति प्रदान करने वाला था। किंतु, सदैव की भाँति देवराज इंद्र को ऋषि की तपस्या से अपना सिंहासन डोलता हुआ दिख रहा था। तपस्या भंग करने के उद्देश्य से देवराज इंद्र ने एक सुन्दर अप्सरा “देखी/उर्वशी” को मृत्युलोक भेजा।
“देखी/उर्वशी” को देखकर ऋषि मुग्ध हो गए और उनका वीर्य स्खलित हो कर धरती पर गिर गया। उसे एक हिरणी ने घास के साथ चर लिया और गर्भवती हो गयी। उसने ऋषि के पुत्र को जन्म दिया, जिसके सिर पर सींग थे। इस कारण ऋषि विभाण्डक ने उस नवजात को ‘ऋष्यश्रृंग’ का नाम दिया।
इस घटना के पश्चात् उन्होंने ठान लिया, कि वह अपने पुत्र ‘ऋष्यश्रृंग’ पर किसी नारी का साया भी न पड़ने देंगे। इसके लिए विभाण्डक ने एक मन्त्र का प्रयोग किया, जो किसी स्त्री को उनके आश्रम के निकट नहीं आने देगा । इस प्रकार, ऋषि
विभाण्डक ने अपने को और अपने पुत्र को नारियों के संपर्क में आने से बचाया।
समय आने पर, ऋष्यश्रृंग महान योगी बन गए। एक दिन, घटाटोप वृष्टि के साथ बहुत जोर की गड़गड़ाहट सुनकर उनके हाथ से पानी का पात्र छूट गया। इससे ‘ऋष्यश्रृंग’ को क्रोध आ गया और उन्होंने एक श्राप दे दिया, कि वर्षा के बादल उनके आश्रम के आस- पास कहीं भी नहीं आ पाएँंगे। उनके इस श्राप के प्रभाव से संकट खड़ा हो गया। आश्रम के आस-पास की धरती सूख गयी।
इस संकट से उबरने और अपने राज्य को भयंकर अकाल से बचाने के लिए वहाँ के राजा ने एक देवदासी को ऋषि के पास भेजा, ताकि वह उनका ध्यान भंग कर सके। राजा को इस बात का ज्ञान था, कि पथभ्रष्ट होने पर उनकी यौगिक शक्तियाँ क्षीण हो जातीं और वर्षा के बादलों को दिया गया, ऋषि का श्राप भी अपनी शक्ति खो देता और समाप्त हो जाता।
किंतु, समस्या यह थी, कि वह देवदासी उनके आश्रम के निकट नहीं जा सकती थी। इसके अतिरिक्त ऋषि-पुत्र ‘ऋष्यश्रृंग’ ने अपने जीवन में कभी किसी नारी को देखा ही नहीं था, इसलिए उन्हें नारी के साथ समागम के बारे में कुछ भी नहीं पता था।
वह देवदासी विभाण्डक के आश्रम के श्राप के घेरे से बाहर खड़ी रही और नाच-गाने से ऋष्यश्रृंग को धीरे-धीरे लुभाने लगी। उनकी वासना को जगाते हुए अपने हाव-भाव से उन्हें यह समझाने लगी, कि वह एक ‘अलग किस्म का पुरुष’ थी।
अंततः उसने उन्हें अपने साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए तैयार कर लिया। इतना होते ही बारिश होने लगी और सूखे का अन्त हो गया।
….. ऋष्यश्रृंग की चर्चा रामायण में वर्णित है। किंतु, यह कथा ‘उड़िया रामायण’ से ली गयी है।
…… यह कथा अपनी वासना को नियंत्रित करने की ऋषि विभाण्डक की असमर्थता एवं हिरणी द्वारा उनके पुत्र को जन्म देने की विलक्षण कथा है। आहत हृदय के कारण आस-पास नारी के साए से भी दूर रखने का उनका निर्णय ब्रह्मचर्य और आश्रमवासियों की मानसिकता को प्रदर्शित करता है, जो हिंदू धर्म के ‘गृहस्थ’ आश्रम के लिए एक चुनौती है।
….. तंत्र में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वीर्य को अक्षत रखना और योग अभ्यास का उपयोग करते हुए वीर्य को उल्टी दिशा में अर्थात् रीढ़ से मस्तिष्क की ओर ले जाना संभव हो सकता है। इस प्रक्रिया को उर्ध्व-रेतस कहा जाता है। इससे ताप या आत्मिक अग्नि उत्पन्न होती है, जो तपस्वी को विशेष शक्ति प्रदान करती है, जिसे ‘सिद्धि’ कहा गया है।
…… सिद्धि की प्राप्ति तपस्वी को असीम शक्ति प्रदान करती है। जिसके कारण वह प्रकृति के विधान में हस्तक्षेप करने की योग्यता रखने लगता है। यही कारण है, कि इंद्र द्वारा ऋषियों का ध्यान भंग करना वह उनके वीर्य-प्रवाह को सामान्य बनाने के लिए अप्सराओं को भेजा गया। इस प्रकार की कथाएँ इन अंतर्निहित तथ्यों को दर्शाती हैं। इति शुभ!















