लेखक की कलम से
गृहवास …
खेतों में फसल कटने को तैयार खड़ी है।
भारी सी पड़ती दिखती एक-एक घड़ी है।
क्या होगा गर कोरोना निज घर को ना पलटा।
देखा नहीं जाता अब फसलों को यूं जलता।
एक-एक दिन हुआ है भारी और रात बड़ी है।
कैसी विचित्र स्थिति अब आन पड़ी है।
मुट्ठी की ताकत को आज तरस रहा हूं।
एक-एक अंगुली दूर हो लाचार खड़ी है।
दाना तो है दाने को मोहताज ये दुनिया।
कुदरत के बरपाए कहर के हाथ चढ़ी है।
©सुधा भारद्वाज “निराकृति”, विकासनगर उत्तराखंड