लेखक की कलम से

दो गुलाब …


 

प्रेम दिवस पर : (जो प्रेम प्रकट न किया जाए वही पवित्र प्रेम है।)

पत्तों की हरी चादर में लिपटे, शूल सी जिम्मेदारियों में घिरे,
मखमली सा दो गुलाबो जैसा प्रेम मेरा तुम्हारा

ना कोई बनावट ना कोई दिखावट
ना किसी खास दिन का मोहताज है
हर रोज बसंत सा सुनहरा प्रेम मेरा तुम्हारा
दो गुलाबो सा….

कच्ची उम्र का ना सही तो ना सही
पहली नजर का ना सही तो ना सही
बड़ों के आशीर्वाद से गठबंधन में बंधा प्रेम मेरा तुम्हारा
दो गुलाबो सा…

कोई गजल ना सही ना सही
कोई कविता ना सही तो ना सही
बच्चों की किलकारीयों से सजा मधुर संगीत सा अमिट प्रेम मेरा तुम्हारा
दो गुलाबो सा …

कलियों की तरह धीरे से खुलता
इत्र की सी महक बिखराता
नदिया सा चंचल प्रेम मेरा तो,सागर जैसा धीर गंभीर शांत प्रेम तेरा
दो गुलाबो सा ….

कभी हंसाता तो कभी रुलाता
कभी नाज नखरे उठाता
कभी गुनगुनाता सजता संवरता सा प्रेम मेरा तुम्हारा
दो गुलाबो सा ..

ज्यों ज्यों बढ़ती जाए उम्र
और परिपक्व होता
संवेदना और संजीदगी से भरपूर प्रेम मेरा तुम्हारा
दो गुलाबो सा…

रोज शाम ढले हर आहट पर
दिल करता इंतजार तेरा
तुम आते तो लगता जैसे पूरा है ये घर संसार मेरा तुम्हारा
दो गुलाबो सा ….

यूं ही देना जिंदगी भर साथ
जब तक है इस तन में प्राण
डोली में आई थी तेरे घर आंगन ,अर्थी पर ही अपने कंधे पर ही तू करना विदा

करके पूरे मेरे सोलह सिंगार
सजाकर सुहाग का लाल जोड़ा
यदि जब भी लगे कोई कमी सी मुझमें
जो सजा देना गेसूओ में मेरे लाल गुलाब कर देना पूरा श्रंगार मेरा
दो गुलाबो सा …

पत्तों की हरी चादर मे लिपटे ,शूल सी जिम्मेदारयो मे घिरे मखमली से दो गुलाबो सा प्रेम मेरा तुम्हारा

 

©ऋतु गुप्ता, खुर्जा, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश 

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