अरण्यक की पीड़ा देखकर त्याग दी थी दिल्ली की ऐशो-आराम की जिंदगी
अब मंगलवार को अंतिम संस्कार भी उसी जंगल में
बिलासपुर। देश की राजधानी में एक प्रोफेसर की जिंदगी की कल्पना ऐशो-आराम से रहने वाले व्यक्ति के रूप में होती है। बात सच भी है। लेकिन मन की व्यथा जिंदगी की धारा कब किस ओर बहा ले जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। यही बात चरितार्थ हुई दिल्ली से जंगल घूमने आए एक प्रोफेसर के साथ और जंगल का जीवन और वहां रह रहे लोगों की पीड़ा उनके लिए इतनी व्यथित कर देने वाली साबित हुई कि वे वापस दिल्ली जाना ही भूल गए। शेष जीवन उसी जंगल में तथा उन्ही लोगों के बीच गुजरी और यहां तक कि अब अंतिम सांस और अंतिम संस्कार भी उनका उन्ही लोगों के बीच उसी जंगल में मंगलवार को होगा। हम चर्चा कर रहे हैं प्रसिद्ध समाज सेवी एवं शिक्षाविद् डॉ. खेरा की जो करीब 35 साल पहले तत्कालीन बिलासपुर जिले के अचानकमार के जंगलों में घूमने के उद्येश्य से आए लेकिन यहां के अरण्यक में रहने वालों से ऐसे प्रभावित हुए कि अपना शेष जीवन उन्ही के बीच व साथ रहकर गुजारने का कठिन फैसला ले लिया। आदिवासयों के बच्चों को शिक्षा और चिकित्सा उनके जीवन का उद्येश्य हो गया। उन्होने दिल्ली की अपनी प्रोफसरी की नौकरी को तिलांजली दे दी। अपने फैसले को लेकर उन्हे कभी कोई गिला न रहा और उसी में अपनी खुशी और संतुष्टि को तलाशते रहे। एक कर्मयोगी और सन्यासी की तरह। कहा जाता है कि पितृपक्ष में जिनका निधन होता है उन्हे सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है। लगता है कि उपर वाले ने प्रो. खेरा की निश्छल सेवा को उनके मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने के लिए तय कर दिया। वे पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे। प्रसिद्ध समाज सेवी एवं शिक्षाविद् डॉ. प्रभुदत्त खैरा का आज सुबह लंबी बीमारी के बाद अपोलो अस्पताल में निधन हो गया।
छत्तीसगढ़ के एडिशनल चीफ सेक्रेटरी आरपी मंडल उनसे मिलने अपोलो अस्पताल में भी पहुंचे थे। श्री मंडल का उनसे काफी पुराना नाता था और बिलासपुर कलेक्टर रहने के दौरान से ही उनके साथ उनकी मेल मुलाकात होती रही है। उनकी निश्चल सेवा के वे कायल थे। साथ ही उनसे काफी प्रभावित भी थे।
एक नजर शिक्षा दूत के जीवनी पर
वनवासी शिक्षा के प्रेरक के रूप मे पहचाने गए प्रो. खेरा का जन्म 13 अप्रेल 1928 को लाहौर पाकिस्तान में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा झंग पंजाब में होने के बाद विश्वविद्यालयीन शिक्षा दिल्ली में हुई। उन्होने गणित तथा सायकोलाजी में एम.ए. किया। 1971 में पीएचडी कर डॉ. खेरा के रूप में पहचान बनायी जिनके मार्गदर्शन में कई छात्रों ने शोध कार्य किया था। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में 15 साल तक पढ़ाते रहे हैं। उनका सन 1983.84 में बिलासपुर आना हुआ. इस दौरान वे अचानकमार के जंगल घूमने गए. वहां पर आदिवासी बच्चों को शिक्षा से दूर देखकर उनका मन काफी व्यथित हुआ और उन्होंने वर्तमान मुंगेली जिले के लमनी गांव में ही बसने का फैसला कर लिया। इसके बाद उन्होंने आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। 1995 से पहली कक्षा से लेकर धीरे धीरे ग्राम लमनी में कक्षा 8 तक की स्कूल की व्यवस्था करवायी। अपनी पेंशन तक की राशि को उन्होने वनवासियों के बीच ही खर्च कर दिया। लेकिन कभी भी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाई। उनका प्रयास जंगल में रहने वालों को शिक्षित करने व उन्हे स्वालम्बी बनाने में रहा। इस प्रयास में कब उनका जीवन अस्ताचल की ओर चला गया शायद इसका आभास प्रो.खेरा को हो ही नहीं पाया। अब मंगलवार को लमनी गांव के उसी जगह उनका अंतिम संस्कार होगा जहां 35 साल पहले आए और वहीं के होकर रह गए।