लेखक की कलम से

विरह की छटपटाहट …

वियोग श्रृंगार रस

 

नारी का श्रृंगार आफताब की तरह चमकने लगता है।

मिलन की चाहत संयोग के पंखों से मखमली अहसास की अनुभूति मुखड़े को चंद्र समान शीतल सौदर्य पूर्ण दमकने लगता है।

एक तरफ मिलन की सुखद अनुभूति श्रृंगार का रस मुख तेज पर उभरने लगा।

दूसरे क्षण मिलन के बाद वियोग के आगोश का खौफ

नीरस आँखो की नमी का राजे बयाँ करने लगा।

मुख पर जुल्फो के काले बादल प्रियतम की तडप से घबराने विचारो से टकराने लगे।

मिलन का जन्नत , सुकून उनके बिछड़ने के खयाल से ही

अमावस्या का चाँद जुल्फो मे छिप नीर बहाने लगा।

आभा मंडल मे शून्य से मन मुरझाने लगा।

प्रियतम का प्यार भरा स्पर्श सहस्त्र सूर्यों के तेज समान मन , तन को भीनी भीनी सुगंध की चरम सीमा के छोर पर

ले जाता है।

प्रियतम की जुदाई वियोग रस मे प्राणों का तन से बिछड़ने की कल्पना से ही पतझड़ की भांति देह से वियोग का करूण रूदन कंपन होने लगा।

प्रियतम तुम ही सोलह श्रृंगार का मूल आधार हो ।

तुम्हारे वियोग मे शमशान सा चारो ओर लगता है।

तुम रस, मेरे अधरों की सुर्ख रंग, मेरी उम्मीद मेरे प्राण प्रिय

तुम बिन मेरी साँसे व्यर्थ।

मुझे होता गर पता प्रियतम है चितचोर , मन रख देती बाँध कर नही सौंपती उनको डोर।

दिल की तड़प की कलम को आँसूओं की कलम मे भिगो कर ।

लिखती हूँ । मेरे ह्रदय के सौदागर बंजर आँखों से तेरी बाँट तकती रहती हूँ।

 

 

©आकांक्षा रूपा चचरा, कटक, ओडिसा

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