लेखक की कलम से

मनमोहना …

भावों के यज्ञ में

एक आहुति अभिव्यक्ति की ऐसी भी….?

सुनो!

मनमोहना

मन चाहता है कि

ऐसा भी हो कभी

कि मैं बैठ जाऊँ कभी

जमुना-जल पाँव डालकर

और डूब जाऊँ

बहुत गहरे तेरे ख्यालों में कहीं

और छलछला जायें नयन

कि मुस्कुरा उठें अधर

और

तू देख ले मुझे

वहीं कहीं कदम्ब की ओट से।

 

मनमोहना!

ये भी हो कभी कि

इक दिन जमुना से लौटूँ मैं

जल की गागर लिए

और तू फोड़ दे उसे

मार के कंकरिया

भीगी चुनर और भीगे बदन

मैं भागूँ तुझे पकड़ने

कि चुभ जाये मेरे पाँव में काँटा

और उलझ जाये

किसी झाड़ी में चुनर

और तू देख ले मुड़कर

जरा मुस्कुराकर

और मैं रो दूँ बेबसी से…।

 

मनमोहना!

मेरा वंदन भी तू

मेरा अर्चन भी तू

तू ही गीत मेरी मुखर प्रीत का

मेरा मौन समर्पण भी तू

तू..बस तू ….बस तू

और मैं

वैरागन तेरीऽऽऽऽऽ।

©रचना शास्त्री, बिजनौर, उत्तरप्रदेश

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