लेखक की कलम से

ममता….. 

बेशकीमती है माँ
तेरे अहसासों की कीमत ?
फिर क्यों बेचने पड़ते है तुझे टोकरी तो एक ही है तेरे पास
दो अलग-अलग फूल कहाँ रखेगी।
दोनो के काँटे की चुभन एक
पर तेरे नथुने में गंध अलग क्यों ।
क्यों एक को चिरायु तेरे लफ्जों में
पराई होकर भी सौभाग्यवती ।
मुझें कहानियों में बसा दिया
एक साथी के तौर पर ।
मूलतः डरावनी छाया से दूर रखने के लिए
एक परछाई बना कर ?
द्वन्द उठता है मुझी से
जब सामिल होते है निर्माण के सपने ।
तू स्तम्भ है मेरा टहनी है दो क्यों काटती एक को प्रेम की छाल मैं भी हूँ वह भी है
मैं भी हूँ अपूर्ण वह भी ।
निस्पक्ष हो कर साथ दे माँ
जो तू है मैं भी बनूँगी एक दिन ।
अविचरणिय शब्द मत लाद
बोझ तले दब जायेगें लोग। निर्लिप्त हो जायेगा अस्तित्व प्रेम का
झर झर हो जायेगी शाखाएँ रिश्तों की ।

©शिखा सिंह, फर्रुखाबाद, यूपी

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